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________________ १३६ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ आचार्य उदयनने अपनी 'लक्षणावली' शक सं० ९०६ ( 984 A. D. ) में समाप्त की है । यदि वाचस्पतिका समय शक सं० ८९८ माना जाता है तो इतनी जल्दी उसपर परिशुद्धि जैसी टीकाका बन जाना संभव मालूम नहीं होता । अतः वाचस्पतिमिश्रका समय विक्रम संवत् ८९८ ( 841 A. D. प्रायः सर्वसम्मत है । वाचस्पतिमिश्रने वैशेषिकदर्शनको छोड़कर प्रायः सभी दर्शनोंपर टीकाएँ लिखीं हैं । सर्वप्रथम इन्होंने मंडनमिश्र के विधिविवेकपर 'न्यायकणिका' नामकी टीका लिखी है, क्योंकि इनके दूसरे ग्रन्थोंमें प्रायः इसका निर्देश है। उसके बाद मंडन मिश्री ब्रह्मसिद्धिकी व्याख्या 'ब्रह्मतत्त्वसमीक्षा' तथा 'तत्त्वबिन्दु'; इन दोनों ग्रन्थोंका निर्देश तात्पर्य - टीकामें मिलता है, अतः उनके बाद 'तात्पर्य- टीका' लिखी गई। तात्पर्य टीकाके साथ ही 'न्यायसूची- निबन्ध' लिखा होगा; क्योंकि न्यायसूत्रोंका निर्णय तात्पर्य- टीकामें अत्यन्त अपेक्षित है । 'सांख्यतत्त्वकौमुदी' में तात्पर्यटीका उद्धृत है, अतः तात्पर्यटीका के बाद 'सांख्यतत्त्वकौमुदी' की रचना हुई । योगभाष्यकी तत्त्ववैशारदी टीकामें 'सांख्यतत्त्वकौमुदी' का निर्देश है, अतः निर्दिष्ट कौमुदीके बाद 'तत्त्ववैशारदी' रची गई । और इन सभी ग्रन्थोंका 'भामती' टीका में निर्देश होनेसे 'भामती' टीका सबके अन्तमें लिखी गई है । जयन्त वाचस्पति मिश्र के समकालीन वृद्ध हैं - वाचस्पतिमिश्र अपनी आद्यकृति 'न्यायकणिका' के मङ्गलाचरणमें न्यायमञ्जरीकारको बड़े महत्त्वपूर्ण शब्दों में गुरुरूपसे स्मरण करते हैं । यथा"अज्ञानतिमिरशमनीं परदमनीं न्यायमञ्जरीं रुचिराम् । प्रसवित्रे प्रभवित्रे विद्यातरवे नमो गुरवे ॥" अर्थात् — जिनने अज्ञानतिमिरका नाश करनेवाली, प्रतिवादियोंका दमन करनेवाली, रुचिर न्यायमंजरीको जन्म दिया उन समर्थ विद्यातरु गुरुको नमस्कार हो । इस श्लोक में मृत 'न्यामञ्जरी' भट्ट जयन्तकृत न्यायमञ्जरी जैसी प्रसिद्ध 'न्यायमञ्जरी' ही होनी चाहिये । अभी तक कोई दूसरी न्यायमञ्जरी तो सुनने में भी नहीं आई । जब वाचस्पति जयन्तको गुरुरूपसे स्मरण करते हैं तब जयन्त वाचस्पतिके उत्तरकालीन कैसे हो सकते हैं । यद्यपि वाचस्पतिने तात्पर्यटीकामें 'त्रिलोचनगुरून्नीत' इत्यादि पद देकर अपने गुरुरूपसे 'त्रिलोचन' का उल्लेख किया है, फिर भी जयन्तको उनके गुरु अथवा गुरुसम होनेमें कोई बाधा नहीं है; क्योंकि एक व्यक्तिके अनेक गुरु भी हो सकते हैं । अभी तक जातञ्च सम्बद्धं चेत्येकः काल:' इस वचनके आधारपर ही जयन्तको वाचस्पतिका उत्तरकालीन माना जाता है । पर यह वचन वाचस्पतिकी तात्पर्य - टीकाका नहीं है, किन्तु न्यायवार्तिककार श्री उद्योतकरका है ( न्यायवार्तिक, पृ० २३६ ), जिस न्यायवार्तिकपर वाचस्पतिकी तात्पर्यटीका है । इनका समय धर्मकीर्ति से पूर्वं होना निर्विवाद है । म० म० गोपीनाथ कविराज अपनी 'हिस्ट्री एण्ड बिब्लोग्राफी ऑफ न्याय वैशेषिक लिटरेचर' में लिखते हैं कि - " वाचस्पति और जयन्त समकालीन होने चाहिए, क्योंकि जयन्तके ग्रन्थोंपर वाचस्पतिका कोई असर देखने में नहीं आता ।" 'जातञ्च' इत्यादि वाक्यके विषय में भी उन्होंने सन्देह प्रकट करते हुए लिखा है कि- "यह वाक्य किसी पूर्वाचार्यका होना चाहिये ।" वाचस्पतिके पहले भी शंकरस्वामी आदि नैयायिक हुए हैं, जिनका उल्लेख तत्त्वसंग्रह आदि ग्रन्थोंमें पाया जाता है । म० म० गङ्गाधर शास्त्रीने जयन्तको वाचस्पतिका उत्तरकालीन मानकर न्यायमञ्जरी ( पृ० १२० ) १. सरस्वती भवन सीरीज, III पार्ट । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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