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________________ ४ | विशिष्ट निबन्ध : ११७ गुणकृत ही है। रह जाता है पुद्गलद्रव्य, जिसका शुद्ध परिणमन कोई निश्चित नहीं है। कारण यह है कि शुद्ध जीवको न तो जीवान्तरका सम्पर्क विकारी बना सकता है और न किसी पुद्गलद्रव्यका संयोग ही, पर पुद्गलमें तो पुदगल और जीव दोनोंके निमित्तसे विकृति उत्पन्न होती है। लोकमें ऐसा कोई प्रदेश भी नहीं है जहाँ अन्य पुद्गल या जीवके सम्पर्कसे विवक्षित पुद्गलाणु अछता रह सकता हो । अतः कदाचित् पुद्गल अपनी शुद्ध-अणु अवस्थामें भी पहुँच जाय, पर उसके गुण और धर्म शुद्ध होंगे या द्वितीयक्षणमें शुद्ध रह सकते हैं, इसका कोई नियामक नहीं है। अनेक पुद्गलद्रव्य मिलकर स्कन्ध दशामें एक संयुक्त बद्ध पर्याय भी बनाते हैं, पर अनेक जीव मिलकर एक संयुक्तपर्याय नहीं बना सकते । सबका परिणमन अपना जुदा-जुदा है । स्कन्धगत परमाणुओंमें भी प्रत्येकशः अपना सदृश या विसदृश परिणमन होता रहता है और उन सब परिणमनोंकी औसतसे ही स्कन्धका वजन, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श व्यवहारमें आता है। स्कन्धगत परमाणुओंमें क्षेत्रकृत और आकारकृत सादृश्य होनेपर भी उनका मौलिकत्व सुरक्षित रहता है । लोकसे एक भी परमाणु अनन्त परिवर्तन करनेपर भी निःसत्त्व-सत्ताशून्य अर्थात् असत् नहीं हो सकता। अतः परिणमनमें विलक्षणता अनुभूत न होनेपर भी स्वभावभूत परिवर्तन प्रतिक्षण होता ही रहता है। द्रव्य एक नदीके समान अतीत वर्तमान और भविष्य पर्यायोंका कल्पित प्रवाह नहीं है। क्योंकि नदी विभिन्नसत्ताक जलकणोंका एकत्र समुदाय है जो क्षेत्रभेद करके आगे बढ़ता जाता है। किन्तु भविष्य, पर्याय एक-एक क्षणमें क्रमशः वर्तमान होतो हुई इस समय एकक्षणवर्ती वर्तमानके रूपमें है। अतीत पर्यायोंका कोई पर्याय-अस्तित्व नहीं है पर जो वर्तमान है वह अतीतका कार्य है, और यही भविष्यका कारण है। सत्ता एकसमयमात्र वर्तमानपर्यायकी है। भविष्य और अतीत क्रमशः अनुत्पन्न और विनष्ट हैं । अन्ततः ध्रौव्य इतना ही है कि एक द्रव्यकी पूर्वपर्याय द्रव्यान्तरको उत्तर-पर्याय नहीं बनती और न वहीं समाप्त होती है । इस तरह द्रव्यान्तरसे असाङ्कर्यका नियामक ही ध्रौव्य है। इसके कारण प्रत्येक द्रव्यकी अपनी स्वतन्त्र सत्ता रहती है और नियत कारणकार्य परम्परा चाल रहती है। वह न विच्छिन्न होती है और न संकर ही। यह भी अतिसुनिश्चित है कि किसी भी नये द्रव्यका उत्पाद नहीं होता और न मौजूदका अत्यन्त विनाश हो । केवल परिवर्तन, सो भी प्रतिक्षण निराबाध गतिसे । इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य अपनी स्वतन्त्र सत्ता रखता है। वह अनन्त गुण और अनन्त शक्तियोंका धनी है। पर्यायानुसार कुछ शक्तियाँ आविर्भूत होती हैं कुछ तिरोभूत । जैनदर्शनमें इस सत्का एक लक्षण तो है "उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत्”, दूसरा है ''सद् द्रव्यलक्षणम्'। इन दोनों लक्षणोंका मथितार्थ यही है कि द्रव्यको सत् कहना चाहिए और वह द्रव्य प्रतिक्षण उत्पाद, व्ययके साथ-ही-साथ अपने अविच्छिन्नता रूप ध्रौव्यको धारण करता है। द्रव्यका लक्षण है-'गुणपर्ययवद् द्रव्यम्' अर्थात गुण और पर्यायवाला द्रव्य होता है । गुण सहभावी और अनेक शक्तियों के प्रतिरूप होते हैं जब कि पर्याय क्रमभावी और एक होती है। द्रव्यका प्रतिक्षण परिणमन एक होता है । उस परिणमनको हम उन-उन गुणोंके द्वारा अनेक रूपसे वर्णन कर सकते हैं । एक पुद्गलाणु द्वितीय समयमें परिवर्तित हुआ तो उस एक परिणमनका विभिन्न रूपरसादि गुणोंके द्वारा अनेक रूपमें वर्णन हो सकता है। विभिन्न गुणोंकी द्रव्यमें स्वतन्त्र सत्ता न होनेसे स्वतन्त्र परिणमन नहीं माने जा सकते । अकलंकदेवने प्रत्यक्षके ग्राह्य अर्थका वर्णन करते समय द्रव्य-पर्याय-सामान्य-विशेष इस प्रकार जो चार विशेषण दिए हैं वे पदार्थकी उपयुक्त स्थितिको सूचित करनेके लिए ही हैं। द्रव्य और पर्याय पदार्थकी परिणतिको सूचित करते हैं तथा सामान्य और विशेष अनुगत और व्यावृत्त व्यवहारके विषयभूत धर्मोंकी सूचना देते हैं। नैयायिक वैशेषिक प्रत्ययके अनुसार वस्तुकी व्यवस्था करते हैं । इन्होंने जितने प्रकारके ज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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