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________________ ११६ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ बौद्ध परम्परामें इस सोपधिशेष निर्वाणको भावात्मक स्वीकार किया ही गया है। यह जोवन,क्त दशाका वर्णन नहीं है किन्तु निर्वाणावस्थाका । आखिर बौद्धदर्शनमें ये दो परम्पराएँ निर्वाणके सम्बन्धमें क्यों प्रचलित हुई ? इसका उत्तर हमें बुद्धकी अव्याकृत सूचीसे मिल जाता है। बुद्धने निर्वाणके बादकी अवस्था सम्बन्धी इन चार प्रश्नोंको अव्याकरणीय अर्थात् उत्तर देनेके अयोग्य बताया। “१-क्या मरने के बाद तथागत (बुद्ध) होते हैं ? २-क्या मरनेके बाद तथागत नहीं होते ? ३-क्या मरने के बाद तथागत होते भी है नहीं भी होते हैं ? ४-क्या मरने के बाद तथागत न होते हैं न नहीं होते हैं ?" माँलुक्यपुत्रके प्रश्नपर बुद्धने वहा कि इनका जानना सार्थक नहीं है क्योंकि इनके बारेमें कहना भिक्षुचर्या निर्वेद या परमज्ञानके लिए उपयोगी नहीं है । यदि बुद्ध स्वयं निर्वाणके स्वरूपके सम्बन्धमें अपना सुनिश्चित मत रखते होते तो वे अन्य सैकड़ों लौकिक अलौकिक प्रश्नोंकी तरह इस प्रश्नको अव्याकृत कोटिमें न डालते । और यही कारण है जो निर्वाणके विषयमें दो धाराएँ बौद्ध दर्शनमें प्रचलित हो गई हैं। इसी तरह बुद्धने जीव और शरोरकी भिन्नता और अभिन्नताको अव्याकृत कोटिमें डालकर श्री राहुलजीको बौद्धदर्शनके 'अभौतिक अनात्मवाद' जैसे उभयप्रतिषेधक नामकरणका अवसर दिया । बुद्ध अपने जीवन में देह और आत्माके जुदापन और निर्वाणोत्तर जीवन आदि अतीन्द्रिय पदार्थों के शतराहेपर अपने शिष्यको खड़ाकर लक्ष्यच्युत नहीं करना चाहते थे। इसलिए लोक क्या है ? आत्मा क्या है ? और निर्वाणोत्तर जीवन कैसा है? इन जीवन्त प्रश्नोंको भी उनने अव्याकरणीय करार दिया । विचारधारा और साधनाका केन्द्रबिन्दु वर्तमान दुःखकी निवृत्ति ही रहा है। राहलजो एक ओर तो विच्छिन्न प्रवाह मानते हैं और दूसरी ओर पुनर्जन्म । वे इतनी बड़ी असङ्गतिको कैसे पी जाते हैं कि यदि पूर्व और उत्तर क्षण विच्छिन्न हैं तो पुनर्जन्म कैसा और किसका ? क्या बुद्धवाक्योंकी ऐसी असंगत व्याख्याको सम्हालनेका प्रयत्न शान्तरक्षित और कमलशील-जैसे दार्शनिकोंने किया है, जो एक अविच्छिन्न कार्यकारण प्रवाह मानते हैं ? अविच्छिन्नका अर्थ है कार्यकारणभाववाली। जैन-र्शनकी दृष्टि में प्रत्येक सत् परिणामी है और वह परिणमन प्रतिक्षणभावी स्वाभाविक है । उसमें किसी अन्य हेतुकी आवश्यकता नहीं है। यदि अन्य कारण मिले तो वे उस परिणमनको प्रभावित कर सकते हैं पर उपादान कारण तो पूर्वपर्याय ही होगी और उसमें जो कुछ है सब अखण्डरूप ही है । अतः द्वितीय णमे वह अखण्डका अखण्ड उत्तरपयाय बन जाता है। चूंकि पुराना क्षण ही वर्तमान बना है और भविष्यको अपनेमें शक्ति या उपादान रूपसे छिपाए है अतः स्मरण, प्रत्यभिज्ञान आदि व्यवहार सोपपत्तिक और समूल बन जाते है । परिणामीका अर्थ है उत्पाद और व्यय होते हुए भी ध्रौव्य रहना । आपाततः यह मालम होता है कि जो उत्पादविनाशवाला है वह ध्रुव कैसे रह सकता है ? पर ध्रौव्यका अर्थ सदा स्थायी कूटस्थ नित्य नहीं है और न यह विवक्षित है कि वस्तुके कुछ अंश उत्पाद-विनाशके कारण परिवर्तित होते हैं तथा कुछ अंश उस परिवर्तनसे अछूते ध्रुव बने रहते हैं, और न परिवर्तनका यह स्थूल अर्थ ही है कि जो प्रथमक्षणमें है, दूसरे क्षणमें वह बिलकुल बदल जाता है या विलक्षण हो जाता है । परिवर्तन सदृश भी होता है, विसदृश भी । शुद्ध चेतनद्रव्य मुक्त अवस्थामें प्रतिक्षण परिवर्तित रहनेपर भी कभी विलक्षण परिवर्तन नहीं करता, उसका सदा सदृश परिवर्तन हो होता रहता है। इसी तरह आकाश, काल, धर्म और अधर्मद्रव्य सदा स्वभावपरिणमन करते हैं। उनमें परिवर्तन करते रहनेपर भो कहने लायक कोई विलक्षणता नहीं आती। यों समझाने के लिए परद्रव्योंके परिवर्तनके अनुसार इनमें भी परप्रत्यय विलक्षणता दिखाई जा सकती है पर न तो इनमें देशभेद होता है न आकारभेद और न स्वरूपविलक्षणता ही । इनका स्वाभाविक परिणमन तो अगुरुल घु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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