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________________ ११८ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ और शब्द-व्यवहार होते हैं उनका वर्गीकरण करके असाङ्कर्यभावसे उतने पदार्थ माननेका प्रयत्न किया है। इसीलिए इन्हें 'संप्रत्ययोपाध्याय' कहा जाता है। पर प्रत्यय अर्थात् ज्ञान और शब्द-व्यवहार इतने अपरिपूर्ण और लचर हैं कि इनपर पूरा-पूरा भरोसा नहीं किया जा सकता। ये तो वस्तुस्वरूपकी ओर इशारामात्र हो कर सकते है। 'द्रव्यम् द्रव्यम्' ऐसा प्रत्यय हुआ एक द्रव्य पदार्थ मान लिया । 'गुण गुण' प्रत्यय हुआ गुण पदार्थ मान लिया। 'कर्म कर्म' ऐसा प्रत्यय हुआ कर्म पदार्थ मान लिया । इस तरह इनके सात पदार्थोंकी स्थिति प्रत्ययके आधीन है । परन्तु प्रत्ययसे मौलिक पदार्थकी स्थिति स्वीकार नहीं की जा सकती। पदार्थ तो अपना अखण्ड ठोस स्वतन्त्र अस्तित्व रखता है, वह अपने परिणमनके अनुसार अनेक प्रत्ययोंका विषय हो सकता है । गुण क्रिया सम्बन्ध आदि स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है, ये तो द्रव्यकी अवस्थाओंके विभिन्न व्यवहार हैं । इसी तरह सामान्य कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है जो नित्य और एक होकर अनेक स्वतन्त्रसत्ताक व्यक्तियोंमें मोतियोंमें सतकी तरह पिरोया गया हो । पदार्थोके परिणमन कुछ सदश भी होते हैं और कुछ विसदर भी । दो विभिन्नसत्ताक व्यक्तियोंमें भूयःसाम्य देखकर अनुगत व्यवहार होने लगता है । अनेक आत्माएँ अपने विभिन्न शरीरोंमें वर्तमान हैं, पर जिनकी अवयवरचना अमुक प्रकारकी सदृश है उनमें 'मनुष्यः मनुष्यः' ऐसा सामान्य व्यवहार किया जाता है तथा जिनकी घोड़ों-जैसी उनमें 'अश्वः अश्वः' यह व्यवहार । जिन आत्माओंमें सादृश्यके आधारसे मनुष्य-व्यवहार हुआ है उनमें मनुष्यत्व नामका कोई सामान्य पदार्थ, जो कि अपनी स्वतन्त्र सत्ता रखता है, आकर समवायनामक सम्बन्ध पदार्थसे रहता है यह कल्पना पदार्थस्थितिके विरुद्ध है। 'सत् सत्' 'द्रव्यम् द्रव्यम्' इत्यादि प्रकारके सभी अनुगत व्यवहार सादृश्यके आधारसे ही होते है । सादृश्य भी उभयनिष्ठ कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है । किन्तु वह बहुत अवयवोंकी समानता रूप ही है। तत्तद् अवयव उन-उन व्यक्तियोंमें रहते ही हैं। उनमें समानता देखकर द्रष्टा उस रूपसे अनुगत व्यवहार करने लगता है । वह सामान्य नित्य एक और निरंश होकर यदि सर्वगत है तो उसे विभिन्न देशस्थ स्वव्यक्तियोंमें खण्डशः रहना होगा; क्योंकि एक वस्तु एक साथ भिन्न देशमें पूर्णरूपसे नहीं रह सकती । नित्य निरंश न्य जिस समय एक व्यक्तिमें प्रकट होता है उसी समय उसे सर्वत्र-व्यक्तियोंके अन्तरालमें भी प्रकट होना चाहिए । अन्यथा 'क्वचित् व्यक्त' और 'क्वचित् अव्यक्त' रूपसे स्वरूपभेद होनेपर अनित्यत्व और सांशत्वका प्रसङ्ग प्राप्त होगा। यदि सामान्य पदार्थ अन्य किसी सत्तासम्बन्धके अभावमें भी स्वतः सत है तो उसी तरह द्रव्य गुण आदि पदार्थ भी स्वतःसत ही क्यों न माने जायँ ? अतः सामान्य स्वतन्त्र पदार्थ न होकर द्रव्योंके सदृश परिणमनरूप ही है। वैशेषिक तुल्य आकृति तुल्य गुणवाले सम परमाणुओंमें परस्पर भेद प्रत्यय करानेके निमित्त स्वतो विभिन्न विशेष पदार्थकी सत्ता मानते हैं । वे मुक्त आत्माओंमें मुक्त आत्माके मनों में विशेष प्रत्ययके निमित्त विशेष पदार्थ मानना आवश्यक समझते हैं। परन्तु प्रत्ययके आधारसे पदार्थ व्यवस्था माननेका सिद्धान्त ही गलत है। जितने प्रकारके प्रत्यय होते जाये उतने स्वतन्त्र पदार्थ यदि माने जायँ तो पदार्थों की कोई सीमा ही नहीं रहेगी। जिस प्रकार विशेष पदार्थ स्वतः परस्पर भिन्न हो सकते हैं उसी तरह परमाणु आदि भी स्वस्वरूपसे ही परस्पर भिन्न हो सकते हैं। इसके लिए किसी स्वतन्त्र 'विशेष' पदार्थकी कोई आवश्यकता नहीं है। व्यक्तियाँ स्वयं ही विशेष है । प्रमाणका कार्य है स्वतःसिद्ध पदार्थकी असंकर व्याख्या करना। बौद्ध सदशपरिणमनरूप समानधर्म स्वीकार न करके सामान्यको अन्यापोह रूप मानते हैं। उनका अभिप्राय है कि-परस्पर-भिन्न वस्तुओंको देखने के बाद जो बुद्धि में अभेदभान होता है उस बुद्धिप्रतिबिम्बित अभेदको ही सामान्य कहते हैं । यह अभेद भी विध्यात्मक न होकर अतव्यावृत्तिरूप है । सभी पदार्थ किसीन-किसी कारणसे उत्पन्न होते हैं तथा कोई-न-कोई कार्य उत्पन्न भी करते हैं। तो जिन पदार्थों में अतत्कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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