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________________ ११० डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ बौद्ध क्षणिक परमाणु रूप चित्त या जड़ क्षणोंको स्वलक्षण मानते हैं। यही उनके मतमें परमार्थसत् है, यही वास्तविक अर्थ है । यह स्वलक्षण शब्दशून्य है, शब्दके अगोचर है । शब्दका वाच्य इनके मतसे बुद्धिगत अभेदांश ही होता है। इन्द्रिय और पदार्थ के सम्बन्धके अनन्तर निर्विकल्पक दर्शन उत्पन्न होता है । यह प्रत्यक्ष प्रमाण है । इसके अनन्तर शब्दसंकेत और विकल्पवासना आदिका सहकार पाकर शब्दसंसर्गी सविकल्पक ज्ञान उत्पन्न होता है । शब्दसंसर्ग न होनेपर भी शब्दसंसर्गकी योग्यता जिस ज्ञानमें आ जाय उसे विकल्प कहते हैं। किसी भी पदार्थको देखनेके बाद । किसी भी पदार्थको देखनेके बाद पूर्वदृष्ट तत्सदृश पदार्थका स्मरण होता है, तदनन्तर तद्वाचक शब्दका स्मरण, फिर उस शब्दके साथ वस्तुका योजन, तब यह 'घट' है इत्यादि शब्दका प्रयोग | वस्तु-दर्शन के बाद होनेवाले -- पूर्वदृष्ट स्मरण आदि सभी व्यापार सविकल्पककी सीमा में आते हैं । तात्पर्य यह कि - निर्विकल्पक दर्शन वस्तुके यथार्थ स्वरूपका अवभासक होनेसे प्रमाण है । सविकल्पक ज्ञान शब्दवासनासे उत्पन्न होनेके कारण, वस्तुके यथार्थ स्वरूपको स्पर्श नहीं करता, अतएव अप्रमाण है। इस निर्विकल्पकके द्वारा वस्तुके समग्ररूपका दर्शन हो जाता है, परन्तु निश्चय यथासम्भव सविकल्पक ज्ञान और अनुमानके द्वारा ही होता है। अकलंकदेव इसका खण्डन करते हुए लिखते हैं कि किसी भी ऐसे निर्विकल्पक ज्ञानका अनुभव नहीं होता जो निश्चयात्मक न हो । सौत्रान्तिक बाह्यार्थवादी हैं । इनका कहना है कि यदि ज्ञान पदार्थ के आकार न हो तो प्रतिकर्मव्यवस्था अर्थात् घटज्ञान का विषय घट ही होता है पट नहीं नहीं हो सकेगी। सभी पदार्थ एक ज्ञानके विषय या सभी ज्ञान सभी पदार्थोंको विषय करनेवाले हो जायेंगे। अतः ज्ञानको साकार मानना आवश्यक है। यदि साकारता नहीं मानी जाती तो विषयज्ञान और विषयज्ञानज्ञानमें कोई भेद नहीं रहेगा । इनमें यही भेद है कि एक मात्र विषय के आकार है तथा दूसरा विषय और विषयज्ञान दोके आकार है । विषयकी सत्ता सिद्ध करनेके लिए ज्ञानको साकार मानना नितान्त आवश्यक है । अकलंकदेवने साकारताके इस प्रयोजनका खण्डन किया है। उन्होंने लिखा है कि विषय प्रतिनियम ज्ञानकी अपनी शक्ति या क्षयोपशमके अनुसार होता है । जिस ज्ञानमें पदार्थको जाननेकी जैसी योग्यता है वह उसके अनुसार पदार्थको जानता है। तदाकारता माननेपर भी यह प्रश्न ज्यों-का-त्यों बना रहता है कि ज्ञान अमुक पदार्थ के हो आकारको क्यों ग्रहण करता है ? अन्य पदार्थोंके आकारको क्यों नहीं ? अन्तमें ज्ञानगत शक्ति ही विषय प्रतिनियम करा सकती है, तदाकारता आदि नहीं । 'जो ज्ञान जिस पदार्थ से उत्पन्न हुआ है वह उसके आकार होता है' आकारनियम नहीं बन सकता; क्योंकि ज्ञान जिस प्रकार पदार्थसे उत्पन्न होता है इन्द्रियोंसे भी यदि तदुत्पत्तिसे साकारता आती है तो जिस प्रकार ज्ञान पटाकार इन्द्रिय तथा प्रकाशके आकार भी होना चाहिये। अपने उपादानभूत पूर्वज्ञानके धारण करना चाहिये जिस प्रकार ज्ञान घट के घटाकारको धारण करता है उसी प्रकार वह उसकी जड़ता इस प्रकार तदुत्पत्ति से भी उसी तरह प्रकाश और होता है उसी प्रकार उसे आकारको तो उसे अवश्य ही 1 को क्यों नहीं धारण करता ? यदि घटके आकारको धारण करनेपर भी जड़ता अगृहीत रहती है तो पट और उसके जड़त्व में भेद हो जायगा । यदि घटकी जड़ता अदताकार ज्ञानसे जानी जाती हैं तो उसी प्रकार घट भी अतदाकार ज्ञानसे जाना जाय वस्तुमात्रको निरंश माननेवाले बौद्धके मतमें वस्तुका खण्डशः भाग तो नहीं ही होना चाहिये । समानकालीन पदार्थ कदाचित् ज्ञानमें अपना आकार अर्पित भी कर दें, पर अतीत और अनागत आदि अविद्यमान अर्थ ज्ञानमें अपना आकार कैसे दे सकते हैं ? Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org/
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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