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________________ ४ | विशिष्ट निबन्ध : १११ विषयज्ञान और विषयज्ञानज्ञानमें भी अन्तर ज्ञानकी अपनी योग्यतासे ही हो सकता है। आकार माननेपर भी अन्ततः स्वयोग्यता स्वीकार करनी ही पड़ती है। अतः बौद्धपरिकल्पित साकारता अनेक दूषणोंसे दूषित होनेके कारण ज्ञानका धर्म नहीं हो सकती । ज्ञानकी साकारताका अर्थ है ज्ञानका उस पदार्थका निश्चय करना या उस पदार्थकी ओर उपयुक्त होना । निर्विकल्पक अर्थात् शब्द-संसर्गकी योग्यतासे भी रहित कोई ज्ञान हो सकता है यह अनुभवसिद्ध नहीं है । ज्ञान अर्थको जानता है-मुख्यतया दो विचारधाराएँ इस सम्बन्धमें हैं। एक यह कि-ज्ञान अपनेसे भिन्न सत्ता रखनेवाले जड़ और चेतन पदार्थों को जानता है। इस विचारधाराके अनुसार जगत्में अनन्त चेतन और अनन्त अचेतन पदार्थों की स्वतन्त्र सत्ता है। दूसरी विचारधारा बाह्य जड़ पदार्थों की पारमार्थिक सत्ता नहीं मानती, किन्तु उनका प्रातिभासिक अस्तित्व स्वीकार करती है। इनका मत है कि घटपटादि बाह्य पदार्थ अनादिकालीन विचित्र वासनाओंके कारण या माया अविद्या आदिके कारण विचित्र रूपमें प्रतिभासित होते हैं। जिस प्रकार स्वप्न या इन्द्रजालमें बाह्य पदार्थों का अस्तित्व न होनेपर भी अनेकविध अर्थक्रियाकारी पदार्थोंका सत्यवत् प्रतिभास होता है, उसी तरह अविद्यावासनाके कारण नानाविध विचित्र अर्थाका प्रतिभास हो जाता है। इनके मतसे मात्र चेतनतत्त्वकी ही पारमार्थिक सत्ता है। इसमें भी अनेक मतभेद हैं । वेदान्ती एक नित्य व्यापक ब्रह्मका ही पारमार्थिक अस्तित्व स्वीकार करते हैं। यही ब्रह्म नानाविध जीवात्माओं और अनेक प्रकारके घटपटादिरूप बाह्य अर्थोके रूपमें प्रतिभासित होता है। संवेदनाद्वैतवादी क्षणिक परमाणुरूप अनेक ज्ञानक्षणोंका पारमार्थिक अस्तित्व मानते हैं। इनके मतसे अनेक ज्ञानसन्ताने पृथक-पृथक पारमाथिक अस्तित्व रखती हैं। अपनी-अपनी वासनाओंके अनुसार ज्ञानक्षण नाना पदार्थोंके रूप में भासित होता है। पहिली विचारधाराका अनेकविध विस्तार न्यायवैशेषिक, सांख्ययोग, जैन, सौत्रान्तिक बौद्ध आदि दर्शनोंमें देखा जाता है। बाह्यार्थलोपकी दूसरी विचारधाराका आधार यह मालूम होता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी कल्पनाके अनुसार पदार्थोंमें संकेत करके व्यवहार करता है । जैसे एक पुस्तकको देखकर उस धर्मका अनुयायी उसे धर्मग्रन्थ समझकर पूज्य मानता है। पुस्तकालयाध्यक्ष उसे अन्य पुस्तकोंकी तरह सामान्य पुस्तक समझता है, तो दुकानदार उसे रद्दीके भाव खरीदकर पुड़िया बाँधता है। भंगी उसे कूड़ा-कचरा मानकर झाड़ सकता है। गाय-भैंस आदि पशुमात्र उसे पुद्गलोंका पुंज समझकर घासकी तरह खा सकते हैं तो दीमक आदि कीड़ोंको उसमें पुस्तक यह कल्पना ही नहीं होगी। अब आप विचार कीजिए कि पुस्तकमें, धर्मग्रन्थ, पुस्तक, रद्दी, कचरा, घासकी तरह खाद्य आदि संज्ञाएँ तत्तदव्यक्तियोंके ज्ञानसे ही आई हैं अर्थात् धर्मग्रन्थ पुस्तक आदिका सद्भाव उन व्यक्तियोंके ज्ञानमें है, बाहिर नहीं । इस तरह धर्मग्रन्थ पुस्तक आदिकी व्यवहारसत्ता है, परमार्थसत्ता नहीं। यदि धर्मग्रन्थ पुस्तक आदिकी परमार्थ सत्ता होती तो वह प्राणिमात्रगाय, भैंसको भी धर्मग्रन्थ या पुस्तक दिखनी चाहिये थी। अतः जगत् केवल कल्पनामात्र है, उसका वास्तविक अस्तित्व नहीं। इसी तरह घट एक है या अनेक । परमाणुओंका संयोग एकदेशसे होता है या सर्वदेशसे । यदि एकदेशसे, तो छह परमाणुओंसे संयोग करनेवाले मध्य परमाणु में छह अंश मानने पड़ेंगे। यदि दो परमाणओंका सर्वदेशसे संयोग होता है, तो अणुओंका पिंड अणुमात्र हो जायगा । इस तरह जैसे-जैसे बाह्य पदार्थोंका विचार करते हैं वैसे-वैसे उनका अस्तित्व सिद्ध नहीं होता। बाह्य पदार्थोंका अस्तित्व तदाकार ज्ञानसे सिद्ध किया जाता है । यदि नीलाकार ज्ञान है तो नील नामके बाह्य पदार्थकी क्या आवश्यकता? यदि नीलाकार ज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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