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________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : १०९ नहीं है । घट और दर्पण दोनों मृर्त और जड़ पदार्थ हैं, उनमें एकका प्रतिबिम्ब दूसरेमें पड़ सकता है, किन्तु चेतन और अमूर्त ज्ञानमें मूर्त जड़ पदार्थका प्रतिबिम्ब नहीं आ सकता और न अन्य चेतनान्तरका ही । ज्ञानके घटाकार होनेका अर्थ है - ज्ञानका घटको जानने के लिए उपयुक्त होना अर्थात् उसका निश्चय करना । तत्त्वार्थवार्तिक ( १६ ) में घटके स्वचतुष्टयका विचार करते हुए लिखा है कि-घट शब्द सुनने के बाद उत्पन्न होनेवाले घट-ज्ञानमें जो घटविषयक उपयोगाकार है वह घटका स्वात्मा और बाह्यघटाकार परात्मा । यहाँ जो उपयोगाकार है उसका अर्थ घटकी ओर ज्ञानके व्यापारका होना है न कि ज्ञानका घट - जैसा लम्बा चौड़ा या वजनदार होना। आगे फिर लिखा है कि- “चैतन्यशक्तेर्द्वावाकारी ज्ञानाकारो ज्ञेयाकारश्च । अनुपयुक्त प्रतिबिम्बाकारादर्शतलवत् ज्ञानाकारः, प्रतिबिम्बाकारपरिणतादर्शतलवत् ज्ञेयाकारः । तत्र ज्ञेयाकारः स्वात्मा ।” अर्थात् चैतन्यशक्तिके दो आकार होते हैं एक ज्ञानाकार और दूसरा ज्ञेयाकार । ज्ञानाकार प्रतिबिम्बशून्य शुद्ध दर्पण के समान पदार्थविषयक व्यापारसे रहित होता है । ज्ञेयाकार सप्रतिबिम्ब दर्पणकी तरह पदार्थविषयक व्यापार से सहित होता है । साकारताके सम्बन्ध में जो दर्पणका दृष्टान्त दिया जाता है उसीसे यह भ्रम हो जाता है कि - ज्ञानमें दर्पणके समान लम्बा चौड़ा काला प्रतिबिम्ब पदार्थका आता है और इसी कारण ज्ञान साकार कहलाता है । दृष्टान्त जिस अंशको समझानेके लिए दिया जाता है उसको उसी अंशके लिए लागू करना चाहिए । यहाँ 'दर्पण' दृष्टान्तका इतना ही प्रयोजन है कि चैतन्यधारा ज्ञेयको जाननेके समय ज्ञेयाकार होती है, शेष समय में ज्ञानाकार । धवला ( प्र० पु० पृ० ३८० ) तथा जयधवला ( प्र० पु० पू० ३३७ ) में दर्शन और ज्ञानमें निराकारता और साकारता प्रयुक्त भेद बताते हुए स्पष्ट लिखा है कि- जहाँ ज्ञानसे पृथक् वस्तु कर्म अर्थात् विषय हो वह साकार है और जहाँ अन्तरङ्ग वस्तु अर्थात् चैतन्य स्वयं चैतन्य रूप ही हो वह निराकार । निराकार दर्शन, इन्द्रिय और पदार्थ के सम्पर्क के पहिले होता है जब कि साकार ज्ञान इन्द्रियार्थसन्निपातके बाद | अन्तरङ्ग विषयक अर्थात् स्वावभासी उपयोगको अनाकार तथा बाह्यावभासी अर्थात् स्वसे भिन्न अर्थको विषय करनेवाला उपयोग साकार कहलाता । उपयोगकी ज्ञानसंज्ञा वहाँसे प्रारम्भ होती है जहाँ से वह स्वव्यतिरिक्त अन्य पदार्थको विषय करता है । जब तक वह मात्र स्वप्रकाश-निमग्न है तब तक वह दर्शन-निराकार कहलाता है । इसीलिए ज्ञानमें ही सम्यक्त्व और मिथ्यात्व प्रमाणत्व और अप्रमाणत्व ये दो विभाग होते हैं । जो ज्ञान पदार्थकी यथार्थ उपलब्धि कराता है यह प्रमाण है अन्य अप्रमाण । पर दर्शन सदा एकविध रहता है उसमें कोई दर्शन प्रमाण कोई दर्शन अप्रमाण ऐसा जातिभेद नहीं होता । चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन आदि भेद तो आगे होनेवाली तत्तत् ज्ञानपर्यायोंकी अपेक्षा हैं । स्वरूपकी अपेक्षा उनमें इतना ही भेद है कि एक उपयोग अपने चाक्षुपज्ञानोत्पादकशक्तिरूप स्वरूपमें मग्न है तो दूसरा अन्य स्पर्शन आदि इन्द्रियोंसे उत्पन्न होनेवाले ज्ञानके जनक स्वरूपमें लीन है, तो अन्य अवधिज्ञानोत्पादक स्वरूपमें और अन्य केवलज्ञान सहभावी स्वरूप में निमग्न है । तात्पर्य यह कि — उपयोगका स्वसे भिन्न किसी भी पदार्थको विषय करना ही साकार होना है, न कि दर्पणकी तरह प्रतिबिम्बाकार होना । निराकार और साकार या ज्ञान और दर्शनका यह सैद्धान्तिक स्वरूपविश्लेषण दार्शनिक युगमें अपनी उस सीमाको लाँघकर 'बाह्यपदार्थ के सामान्यावलोकनका नाम दर्शन और विशेष परिज्ञानकका नाम ज्ञान' इस बाह्यपरिधि में आ गया। इस सीमोल्लंघनका दार्शनिक प्रयोजन बौद्धादि सम्मत निर्विकल्पककी प्रमाणताका निराकरण करना ही है । अकलङ्कदेवने विशद ज्ञानको प्रत्यक्ष बताते हुए जो ज्ञानका 'साकार' विशेषण दिया है यह उपर्यक्त अर्थको द्योतन करनेके ही लिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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