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________________ १०८ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थं वचनादि चेष्टाओंसे अन्यत्र बुद्धिका अनुमान कैसे कर सकते हैं और अपनी आत्मामें जब तक बुद्धिका स्वयं साक्षात्कार नहीं हो जाता तब तक अविनाभावका ग्रहण असम्भव ही है। अन्य आत्माओंमें तो बुद्धि अभी असिद्ध ही है। आत्मान्तरमें बुद्धिका अनुमान नहीं होनेपर समस्त गुरु-शिष्य देनलेन आदि व्यवस्थाओंका लोप हो जायगा। यदि अज्ञात या अप्रत्यक्ष ज्ञानके द्वारा अर्थ-बोध माना जाता है, तो सर्वज्ञके ज्ञानके द्वारा हमें सर्वार्थज्ञान होना चाहिए। हमें ही क्यों, सबको सबके ज्ञानके द्वारा अर्थबोध हो जाना चाहिये । अतः ज्ञानको स्वसंवेदी माने बिना ज्ञानका सद्भाव तथा उसके द्वारा प्रतिनियत अर्थबोध नहीं हो सकता । अतः यह आवश्यक है कि उसमें अनुभवसिद्ध आत्मसंवेदित्व स्वीकार किया जाय । २-नैयायिकका ज्ञानको ज्ञानान्तरवेद्य मानना उचित नहीं है, क्योंकि इसमें अनवस्था नामका महान् दूषण आता है । जबतक एक भी ज्ञान स्वसंवेदी नहीं माना जाता तब तक पूर्व-पूर्व ज्ञानोंका बोध करने लिये उत्तर-उत्तर ज्ञानोंकी कल्पना करनो हो होगी। क्योंकि जो भी ज्ञानव्यक्ति अज्ञात रहेगी वह स्वपूर्व ज्ञानव्यक्तिकी वेदिका नहीं हो सकती । और इस तरह प्रथम ज्ञानके अज्ञात रहनेपर उसके द्वारा पदार्थका बोध नहीं हो सकेगा । एक ज्ञानके जाननेके लिए ही जब इस तरह अनन्त ज्ञानप्रवाह चलेगा तब अन्य पदार्थोका ज्ञान कब उत्पन्न होगा ? थक करके या अरुचिसे या अन्य पदार्थके सम्पर्कसे पहिली ज्ञानाधाराको अधूरी छोड़कर अनवस्थाका वारण करना इसलिये युक्तियुक्त नहीं है कि जो दशा प्रथम ज्ञानकी हुई है और जैसे वह बीच में ही अज्ञात दशामें लटक रहा है वही दशा अन्य ज्ञानोंकी भी होगी । ईश्वरका ज्ञान यदि अस्वसंवेदी माना जाता है तो उसमें सर्वज्ञता सिद्ध नहीं हो सकेगी, क्योंकि एक तो उसने अपने स्वरूपको ही स्वयं नहीं जाना दूसरे अप्रत्यक्ष ज्ञानके द्वारा वह जगत्का परिज्ञान नहीं कर सकता । ईश्वरके दो नित्य ज्ञान इसलिए मानना कि-एकसे वह जगत्को जानेगा तथा दूसरेसे ज्ञानको-निरर्थक है; क्योंकि दो ज्ञान एक साथ उपयोग दशामें नहीं रह सकते। दूसरे यदि वह ज्ञानको जाननेवाला द्वितीय ज्ञान स्वयं अपने स्वरूपका प्रत्यक्ष नहीं करता तो उससे प्रथम अर्थज्ञानका प्रत्यक्ष नहीं हो सकेगा। यदि प्रत्यक्ष किसी तृतीय ज्ञानसे माना जाय तो अनवस्था दूषण होगा। यदि द्वितीय ज्ञानको स्वसंवेदी मानते हैं तो प्रथम ज्ञानको ही स्वसंवेदी मानने में क्या बाधा है ? ३-सांख्यके मतमें यदि ज्ञान प्रकृतिका विकार होनेसे अचेतन है, वह अपने स्वरूपको नहीं जानता, उसका अनुभव पुरुष संचेतनके द्वारा होता है तो ऐसे अचेतन ज्ञानकी कल्पनाका क्या प्रयोजन है ? जो पुरुषका संचेतन ज्ञानके स्वरूपका संवेदन करता है वही पदार्थों को भी जान सकता है। पुरुषका संचेतन यदि स्वसंवेदी नहीं है तो इस अकिचित्कर ज्ञानको सत्ता भी किससे सिद्ध की जायगी? अतः स्वार्थसंवेदक पुरुषानुभवसे भिन्न किसी प्रकृतिविकारात्मक अचेतन ज्ञानकी कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। करण या माध्यमके लिए इन्द्रियाँ और मन मौजूद हैं । वस्तुतः 'ज्ञान और पुरुषगतसंचेतन' ये दो जुदा है ही नहीं। पुरुष, जिसे सांख्य कूटस्थ नित्य मानता है, स्वयं परिणामी है, पूर्वपर्यायको छोड़कर उत्तरपर्यायको धारण करता है । संचेतना ऐसे परिणामीनित्य पुरुषका ही धर्म हो सकती है। इससे पृथक् किसी अचेतन ज्ञानकी आवश्यकता ही नहीं है । अतः ज्ञानमात्र स्वसंवेदी है। वह अपने जाननेके लिए किसी अन्य ज्ञानकी अपेक्षा नहीं करता। ज्ञानकी साकारता-ज्ञानकी साकारताका साधारण अर्थ यह समझ लिया जाता है कि जैसे दर्पणमें घट-पट आदि पदार्थोंका प्रतिबिम्ब आता है और दर्पणका अमुक भाग घटछायाक्रान्त हो जाता है उसी तरह ज्ञान भी घटाकार हो जाता है अर्थात् घटका प्रतिबिम्ब ज्ञानमें पहुँच जाता है। पर वास्तव बात ऐसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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