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________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : १०७ दीपकसे बढ़कर समदृष्टान्त दूसरा नहीं हो सकता। दीपकके देखनेके लिए दूसरे दीपककी आवश्यकता नहीं होती, भले ही वह पदार्थोंको मन्द या अस्पष्ट दिखावे पर अपने रूपको तो जैसेका तैसा प्रकाशित करता ही है । ज्ञान चाहे संशयरूप हो या विपर्ययरूप या अनध्यवसायात्मक स्वयं अपने ज्ञानरूपका प्रकाशक होता ही है। ज्ञानमें संशयरूपता, विपर्ययरूपता या प्रमाणताका निश्चय बाह्यपदार्थके यथार्थप्रकाशकत्व और अयथार्थप्रकाशकत्वके अधीन है पर ज्ञानरूपता या प्रकाशरूपताका निश्चय तो उसका स्वाधीन ही है उसमें ज्ञानान्तरकी आवश्यकता नहीं होती और न वह अज्ञात रह सकता है । तात्पर्य यह कि-कोई भी ज्ञान जब उपयोग अवस्थामें आता है तब अज्ञात होकर नहीं रह सकता। हाँ, लब्धि वा शक्ति रूपमें वह जात न हो यह जदी बात है क्योंकि शक्तिका परिज्ञान करना विशिष्टज्ञानका कार्य है। पर यहाँ तो प्रश्न उपयोगात्मक ज्ञानका है । कोई भी उपयोगात्मक ज्ञान अज्ञात नहीं रह सकता, वह तो जगाता हुआ ही उत्पन्न होता है, उसे अपना ज्ञान करानेके लिए किसी ज्ञानान्तरकी अपेक्षा नहीं है। यदि ज्ञानको परोक्ष माना जाय तो उसका सद्भाव सिद्ध करना कठिन हो जायगा। 'अर्थप्रकाश' रूप हेतुसे उसकी सिद्धि करनेमें निम्नलिखित बाधाएँ है-पहिले तो अर्थप्रकाश स्वयं ज्ञान है, अतः जब तक अर्थप्रकाश अज्ञात है तब तक उसके द्वारा मूलज्ञानकी सिद्धि नहीं हो सकती। यह एक सर्वमान्य सिद्धान्त है कि-"अप्रत्यक्षोपलम्भस्य नार्थ सिद्धि : प्रसिध्यति"-अर्थात् अप्रत्यक्ष-अज्ञात ज्ञानके द्वारा अर्थसिद्धि नहीं होती । "नाज्ञातं ज्ञापकं नाम"- स्वयं अज्ञात दूसरेका ज्ञापक नहीं हो सकता, यह भी सर्वसम्मत न्याय है। फलतः यह आवश्यक है कि पहिले अर्थप्रकाशका ज्ञान हो जाय । यदि अर्थप्रकाशके ज्ञानके लिये अन्यज्ञान अपेक्षित हो तो उस अन्यज्ञानके लिए तदन्यज्ञान इस तरह अनवस्था नामका दूषण आता है और इस अनन्तज्ञानपरम्पराकी कल्पना करते रहनेमें आद्यज्ञान अज्ञात ही बना रहेगा। यदि अर्थप्रकाश स्ववेदी है तो प्रथमज्ञानको स्ववेदी मानने में क्या बाधा है ? स्ववेदी अर्थप्रकाशसे ही अर्थबोध हो जानेपर मल ज्ञानकी कल्पना ही निरर्थक हो जाती है । दूसरी बात यह है कि जब तक ज्ञान और अर्थप्रकाशका अविनाभाव सम्बन्ध गृहीत नहीं होगा तब तक उससे ज्ञानका अनुमान नहीं किया जा सकता। यह अविनाभाव ग्रहण अपनी आत्मामें तो इसलिए नहीं बन सकता कि अभी तक ज्ञान ही अज्ञात है तथा अन्य आत्माके ज्ञानका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता । अतः अविनाभावका ग्रहण न होने के कारण अनुमानसे भी ज्ञानकी सत्ता सिद्ध नहीं की जा सकती। इसी तरह पदार्थ, इन्द्रियाँ, मानसिक उपयोग आदिसे भी मूलज्ञानका अनुमान नहीं हो सकता । कारण इनका ज्ञानके साथ कोई अविनाभाव नहीं है । पदार्थ आदि रहते हैं पर कभी-कभी ज्ञान नहीं होता । कदाचित् अविनाभाव हो भी तो उसका ग्रहण नहीं हो सकता। आहलादनाकार परिणत ज्ञानको ही सुख कहते हैं। सातसंवेदनको सुख और असातसंवेदनको दुःख सभी वादियोंने माना है । यदि ज्ञानको स्वसंवेदी नहीं मानकर परोक्ष मानते हैं, तो परोक्ष सुख दःखसे आत्माको हर्ष विषादादि नहीं होना चाहिए । यदि अपने सुखको अनुमानग्राह्य या ज्ञानान्तरग्राह्य माना जाय और उससे आत्मामें हर्षविषादादिकी सम्भावना की जाय, तो अन्य सुखी आत्माके सुखका अनुमान करके हमें हर्ष होना चाहिए। अथवा केवलीको, जिसे सभी जीवोंके सुखदुःखादिका प्रत्यक्ष ज्ञान हो रहा है, हमारे सुखदुःखसे हर्ष विषादादि उत्पन्न होने चाहिए। चूंकि हमारे सुखदुःखसे हमें ही हर्षविषादादि होते हैं, अन्य किसी अनुमान करनेवाले या प्रत्यक्ष करनेवाले आत्मान्तरको नहीं, अतः यह मानना ही होगा कि वे हमारे स्वयंप्रत्यक्ष हैं अर्थात् वे स्वप्रकाशी हैं। यदि ज्ञानको परोक्ष माना जाता है तो आत्मान्तरकी बुद्धिका अनुमान नहीं किया जा सकता । पहिले हम स्वयं अपनी आत्मा ही जब तक बुद्धि और वचनादि व्यापारोंका अविनाभाव ग्रहण नहीं करेंगे तब तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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