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________________ ३६ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ प्र०—जब सर्वज्ञ रागी आत्माके राग तथा दुःखीके दृःखका साक्षात्कार करता है तब तो वह स्वयं रागी तथा दुःखी हो जायगा । उ०-दुःख या राग को जाननेमात्रसे कोई दुःखी या रागी नहीं होता। राग तो आत्माका स्वयं तद्रूपसे परिणमन करनेपर होता है। क्या कोई श्रोत्रियब्राह्मण मदिराके रसका ज्ञान करनेमात्रसे मद्यपायी कहा जा सकता है ? रागके कारण मोहनीय आदि कर्म सर्वज्ञसे अत्यन्त उच्छिन्न हो गए हैं, अतः वे राग या दुःखको जाननेमात्रसे रागी या दुःखी नहीं हो सकते । - प्र.---जब सर्वज्ञके साधक और बाधक दोनों प्रकारके प्रमाण नहीं मिलते, तो उसकी सत्ता संदिग्ध हो कहना चाहिए। उ०-साधक प्रमाण पहिले बता आए हैं तथा बाधकोंका परिहार भी किया जा चुका है तब संदेह क्यों हो? सर्वज्ञके अभावका साधन तो सर्वज्ञ हुए बिना किया ही नहीं जा सकता । जब हम त्रिकाल-त्रिलोकवर्ती यावत्पुरुषोंका असर्वज्ञरूपमें दर्शन कर सकेंगे तभी असर्वज्ञता सिद्ध की जा सकती है। पर ऐसी असर्वज्ञता सिद्ध करनेवाला व्यक्ति स्वयं अनायास ही सर्वज्ञ बन जायगा। धर्मकीत्तिने बुद्धको करुणावान तथा हेयोपादेय तत्त्वका उपदेष्टा कहा है। अकलंक कहते है किजब आप समस्तधर्मोंके आधारभूत आत्माको ही नहीं मानते तब किसपर करुणा की जायगी तथा कौन करुणा करेगा? कौन उसका अनुष्ठान करेगा? ज्ञानक्षण तो परस्पर भिन्न है, अतः भावना किसी अन्यज्ञानक्षणको होगी तो मुक्ति किसी दूसरे ज्ञानक्षणको। दुःख, समुदय, निरोध और मार्ग ये चार आर्यसत्य तो तब ठीक हो सकते हैं जब दुःखादिके अनुभव करनेवाले आत्माको स्वीकार किया जाय । इस तरह जीव जिसे संसार होता है तथा जो मक्त होता है, अजीव जिसके सम्बन्धसे दुःख होता है, इन दो आधारभूत तत्त्वोंको माने बिना तत्त्वसंख्याकी पूर्णता नहीं हो सकती । दुःखको जैन लोग बन्ध तथा समुदयको आस्रव शब्दसे कहते हैं । निरोधको मोक्ष तथा मार्गको संवर और निर्जरा शब्दसे कहते हैं। अतः चार आर्यसत्यके साथ जोव और अजीव इन दो मल तत्त्वोंको मानना ही चाहिय । जीव और अजीव इन दो मूल तत्त्वोंके अनादिकालीन सम्बन्धसे ही दुःख आदिकी सृष्टि होती है । बुद्धने हिंसाका भी उपदेश दिया है अतः मालूम होता है कि वे यथार्थदर्शी नहीं थे। इत्यादि। सद् आत्माको हेय कहना, निरोधको जो असद्रूप है उपादेय कहना, उसके कारणोंका उपदेश देना तथा असत्की प्राप्तिके लिए यत्न करना ये सब बातें उनकी असर्वज्ञताका दिग्दर्शन करानेके लिए पर्याप्त है । अकलकके द्वारा बुद्धके प्रति किए गए अकरुणावत्त्व आदि आक्षेपोंके लिए उस समयकी साम्प्रदायिक परिस्थिति ही जवाबदेह है, क्योंकि कुमारिल और धर्मकीर्ति आदिने जैनोंके ऊपर भी ऐसे ही कल्पित आक्षेप किए हैं। परोक्ष-अकलङ्कदेवने तत्त्वार्थसूत्रकारके द्वारा निर्दिष्ट परोक्षज्ञानोंमें मतिज्ञान मति स्मृत्यादि ज्ञानोंको नामयोजनाके पहिले सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष कहकर नाम योजना होनेपर उन्हीं ज्ञानोंको श्रुतव्यपदेश दिया है और श्रुतको अस्पष्ट होनेसे परोक्ष कहा है। अर्थात् परोक्षज्ञानके स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, अभिनिबोध तथा श्रुत-आगम ये पाँच भेद हुए । अकलंकदेवने राजवातिकमें अनुमान आदि ज्ञानोंको स्वप्रत्तिपत्तिकालमें (नामयोजनासे पहिले.) अनक्षरश्रुत तथा परप्रतिपत्तिकालमें अक्षरश्रुत कहा है । लघीयस्त्रयमें मति (इन्द्रियानिन्द्रियजप्रत्यक्ष) को नामयोजनाके पहिले मतिज्ञान एवं सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष तथा शब्दयोजनाके बाद उसे ही श्रुत कहना उनके समन्वय करनेके उत्कट यत्नकी ओर ध्यान खींचता है, और इससे यह भी मालम होता है कि लघीयस्त्रय बनाते समय वे अपनी योजनाको दृढ़ नहीं कर सके थे; क्योंकि उनने लघीयस्त्रयमें मति, स्मति आदिको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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