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________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : ३५ उ०-वक्तृत्व और मर्वज्ञत्वका कोई विरोध नहीं है, वक्ता भी हो सकता है और सर्वज्ञ भी । ज्ञानकी बढ़तीमें वचनोंका ह्रास नहीं होता । प्र०-वक्तृत्व विवक्षासे सम्बन्ध रखता है, अतः इच्छारहित निर्मोही सर्वज्ञमें वचनोंकी संभावना ही कैसे है ? शब्दोच्चारणकी इच्छा तो मोहकी पर्याय है। उ०-विवक्षाके साथ वक्तृत्वका कोई अविनाभाव नहीं है। मन्दबुद्धि शास्त्रविवक्षा रखते हैं, पर शास्त्रका व्याख्यान नहीं कर सकते । सुषप्तादि अस्थाओंमें वचन देखे जाते हैं पर विवक्षा नहीं है। अतः वचनप्रवृत्तिमें चैतन्य तथा इन्द्रियोंकी पटुता कारण है। लेकिन उनका सर्वज्ञताके साथ कोई कि है। अथवा, वचन विवक्षाहतक मान भी लिए जायँ पर सत्य और हितकारक वचनकी प्रवत्ति करानेवाली विवक्षा दोषवाली कैसे हो सकती है? इसी तरह निर्दोष वीतराग पुरुषत्व सर्वज्ञताके साथ कोई विरोध नहीं रखता। अतः इन व्यभिचारी हेतुओंसे साध्य सिद्धि नहीं हो सकती; अन्यथा 'जैमिनिको यथार्थ वेदज्ञान नहीं है, क्योंकि वह वक्ता है एवं पुरुष है' इस अनुमानसे जैमिनिकी वेदार्थज्ञताका भी निषेध भलीभाँति किया जा सकता है। प्र०-आजकल हमें किसी भी प्रमाणसे सर्वज्ञ उपलब्ध नहीं होता, अतः अनुपलम्भ होनेसे उसका अभाव ही मानना चाहिए। उ०-पूर्वोवत अनुमानोंसे सर्वज्ञकी सिद्धि होती है, अतः अनुपलम्भ तो नहीं कहा जा सकता। यह अनुपलम्भ आपको है, या संसारके समस्त जीवोंको? आपको तो इस समय हमारे चित्तमें आनेवाले विचारोंकी भी अनुपलब्धि है पर इससे उनका अभाव तो सिद्ध नहीं किया जा सकता। अतः स्वोपलम्भ अनेकान्तिक है। 'सबको सर्वज्ञका अनुपलम्भ है' यह बात तो सबके ज्ञानोंका ज्ञान होनेपर ही सिद्ध हो सकती है। और यदि किमी पुरुषको समस्त प्राणियोंके ज्ञानका ज्ञान हो सके; तब तो वही पुरुष सर्वज्ञ हो जायगा। यदि समस्तजीवोंके ज्ञानका ज्ञान नहीं हो सके; तब तो 'सबको सर्वज्ञका अनुपलम्भ है' यह बात असिद्ध ही रह जायगी। - प्र०–'सर्वज्ञता आगमोक्तपदार्थोंका यथार्थज्ञान एवं अभ्याससे होगी तथा आगम सर्वज्ञके द्वारा कहा जायगा' इस तरह सर्वज्ञ और आगम दोनों ही अन्योन्याश्रित-एक-दूसरेके आश्रित होनेसे असिद्ध हैं। उ०-सर्वज्ञ आगमका कारक है। प्रकृत सर्वज्ञका ज्ञान पूर्वसर्वज्ञके द्वारा प्रतिपादित आगमके अर्थके आचरणसे उत्पन्न होता है, पूर्व आगम तत्पूर्वसर्वज्ञके द्वारा कहा गया है। इस तरह बीजांकुरकी तरह सर्वज्ञ और आगमकी परम्परा अनादि मानी जाती है। अनादिपरम्परामें इतरेतराश्रय दोषका विचार अव्यवहार्य है। प्र०-जब आजकल पुरुष प्रायः रागादि दोषसे दुषित तथा अज्ञानी देखे जाते हैं, तब अतीतकालमें भी किसी अतीन्द्रियार्थद्रष्टाकी संभावना नहीं की जा सकती और न भविष्यत्कालमें ही? क्योंकि पुरुषजातिकी शक्तियाँ तीनों कालोंमें प्रायः समान ही रहती हैं; वे अपनी अमुक मर्यादा नहीं लाँघ सकतीं। उ०-यदि पुरुषातिशयको हम नहीं जान सकते तो इससे उसका अभाव नहीं होता। अन्यथा आजकल कोई वेदका पूर्ण नहीं देखा जाता अतः अतीतकालमें जैमिनिको भी उसका यथार्थ ज्ञान नहीं था यह कहना चाहिये । बुद्धिमें तारतम्य होनेसे उसके प्रकर्षकी संभावना तो है ही। जैसे मलिन सुवर्ण अग्निके तापसे क्रमशः पूर्ण निर्मल हो जाता है, उसी तरह सम्यग्दर्शनादिके अभ्याससे आत्मा भी पूर्णरूपसे निर्मल हो सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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