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________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : ३७ अवस्थाविशेषमें मतिज्ञान लिखनेपर भी न्यायविनिश्चयमें स्मरणादि ज्ञानोंके ऐकान्तिक श्रुतत्व-परोक्षत्वकाविधान किया है । स्मृति - स्मरणको कोई वादी गृहीतग्राही होनेसे तथा कोई अर्थसे उत्पन्न न होनेके कारण अप्रमाण कहते आए हैं । पर अकलंकदेव कहते हैं कि - यद्यपि स्मरण गृहीतग्राही है फिर भी अविसंवादी होनेसे प्रमाण ही होना चाहिये । वह अविसंवादी प्रत्यभिज्ञानका जनक भी है। स्मृति समारोपका व्यवच्छेद करनेवाली है, अतः उसे प्रमाण माननेमें कोई विरोध नहीं होना चाहिए । प्रत्यभिज्ञान - दर्शन और स्मरणसे उत्पन्न होनेवाले, एकत्व सादृश्य वैसदृश्य प्रतियोगि तथा दूरत्वादिरूपसे संकलन करनेवाले ज्ञानका नाम प्रत्यभिज्ञान । प्रत्यभिज्ञान यद्यपि स्मरण और प्रत्यक्षसे उत्पन्न होता है फिर भी इन दोनोंके द्वारा अगृहीत पूर्वोत्तरपर्यायवर्ती एकत्वको विषय करनेके कारण प्रमाण है । अविसंवादित्व भी प्रत्यभिज्ञानमें पाया जाता है जो प्रमाणताका खास प्रयोजक है । तर्क - प्रत्यक्ष - साध्यसाधनसद्भावज्ञान और अनुपलम्भ - साध्याभाव-साधनाभावज्ञानसे उत्पन्न होनेवाला सर्वोपसंहाररूपसे साध्यसाधन के सम्बन्धको ग्रहण करनेवाला ज्ञान तर्क है । संक्षेपमें अविनाभावरूप व्याप्तिको ग्रहण करनेवाला ज्ञान तर्क कहलाता है । जितना भी धूम है वह कालत्रय तथा त्रिलोकमें अग्निसे ही उत्पन्न होता है, अग्निके अभाव में कहीं भी कभी भी नहीं हो सकता ऐसा सर्वोपसंहारी अविनाभाव प्रत्यक्षादि किसी भी प्रमाणसे गृहीत नहीं होता । अतः अगृहीतग्राही तथा अविसंवादक तर्कको प्रमाणभूत मानना ही चाहिये । सन्निहितपदार्थको विषय करनेवाला अविचारक प्रत्यक्ष इतने विस्तृत क्षेत्रवाले अविनाभावको नहीं जान सकता । भले ही वह एक अमुकस्थानमें साध्यसाधनके सम्बन्धको जान सके, पर अविचारक होनेसे उसकी साध्यसाधनसम्बन्धविषयक विचारमें सामर्थ्य ही नहीं है । अनुमान तो व्याप्तिग्रहणके बाद ही उत्पन्न होता है, अतः प्रकृत अनुमान स्वयं अपनी व्याप्तिके ग्रहण करनेका प्रयत्न अन्योन्याश्रयदोष आनेके कारण नहीं कर सकता; क्योंकि जब तक व्याप्ति गृहीत न हो जाय तब तक अनुमानोत्पत्ति नहीं हो सकती और जब तक अनुमान उत्पन्न न हो जाय तब तक व्याप्तिका ग्रहण असंभव है । प्रकृत अनुमानकी व्याप्ति किसी दूसरे अनुमानके द्वारा ग्रहण करनेपर तो अनवस्था दूषण स्पष्ट ही है। इस तरह तर्कको स्वतन्त्र प्रमाण मानना ही उचित है। जिनमें अविनाभाव नहीं है उनमें अविनाभावकी सिद्धि करनेवाला ज्ञान कुतर्क है । जैसे विवक्षासे वचनका अविनाभाव बतलाना; क्योंकि विवक्षाके अभाव में भी सुषुप्तादि अवस्थामें वचनप्रयोग देखा जाता है । शास्त्रविवक्षा रहनेपर भी मन्दबुद्धियों के शास्त्रव्याख्यानरूप वचन नहीं देखे जाते । अनुमान - अविनाभावी साधनसे साध्यके ज्ञानको अनुमान कहते हैं । नैयायिक अनुमितिके करण - को अनुमान कहते हैं । उनके मतसे परामर्शज्ञान अनुमानरूप होता है । 'धूम अग्निसे व्याप्त है तथा वह धूम पर्वत है' इस एकज्ञानको परामर्शज्ञान कहते हैं । बौद्ध त्रिरूपलिंग से अनुमेयके ज्ञानको अनुमान मानते हैं । साधनका स्वरूप तथा अविनाभावग्रहणप्रकार - साध्य के साथ जिसकी अन्यथानुपपत्ति- अविनाभाव निश्चित हो उसे साधन कहते हैं । अविनाभाव ( बिना - साध्यके अभाव में अ-नहीं भाव - होना ) साध्यके अभाव में साधनके न होनेको कहते हैं । यह अविनाभाव प्रत्यक्ष और अनुपलम्भसे उत्पन्न होनेवाले तर्क नामके प्रमाणके द्वारा गृहीत होता है । बौद्ध पक्षधर्मत्वादि त्रिरूपवाले साधनको सत्साधन कहते हैं । वे सामान्यसे अविनाभावको ही साधनका स्वरूप मानते हैं । त्रिरूप तो अविनाभाव के परिचायकमात्र हैं । वे तादात्म्य और तदुत्पत्ति इन दो सम्बन्धोंसे अविनाभावका ग्रहण मानते हैं । उनके मतसे हेतुके तीन भेद हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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