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________________ १० : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ है । इत्सिंगने नालन्दा विश्वविद्यालयकी शिक्षाप्रणाली आदिका अच्छा वर्णन किया है । वह विद्यालयके लब्धप्रतिष्ठ स्नातकोंकी चर्चा के सिलसिले में लिखता है कि - " प्रत्येक पीढ़ीमें ऐसे मनुष्योंमें से केवल एक या दो ही प्रकट हुआ करते हैं जिनकी उपमा चाँद या सूर्यसे होती है और उन्हें नाग और हाथीकी तरह समझा जाता । पहिले समय में नागार्जुनदेव, अश्वघोष, मध्यकालमें वसुबन्धु, असङ्ग, संघभद्र और भवविवेक, अन्तिम समयमें जिन, धर्मपाल, धर्मकीर्ति, शीलभद्र, सिंहचन्द्र, स्थिरमति, गुणमति, प्रज्ञागुप्त, गुणत्रभ, जिनप्रभ ऐसे मनुष्य थे ।" ( इत्सिंग की भारतयात्रा पृ० २७७ ) इत्सिंग ( पृ० २७८ ) फिर लिखते हैं कि "धर्मकीर्ति 'जिन' के पश्चात् हेतुविद्याको और सुधारा । प्रज्ञागुप्तने ( मतिपाल नहीं ) सभी विपक्षी मतोंका खंडन करके सच्चे धर्मका प्रतिपादन किया ।" इन उल्लेखोंसे मालूम होता है कि- सन् ६९१ तक में धर्मकीर्तिकी प्रसिद्धि ग्रन्थकार के रूपमें हो रही थी । इत्सिंगने धर्मकीर्ति के द्वारा हेतुविद्याके सुधारनेका जो वर्णन किया है। वह सम्भवतः धर्मकीर्ति के हेतुविन्दु ग्रन्थको लक्ष्यमें रखकर किया गया है, जो हेतुविद्याका एक प्रधान ग्रन्थ है । वह इतना परिष्कृत एवं हेतुविद्यापर सर्वांगीण प्रकाश डालनेवाला है कि केवल उसीके अध्ययन से हेतुविद्याका पर्याप्त ज्ञान हो सकता है । sfer द्वारा धर्मपाल, गुणमति, स्थिरमति आदिके साथ ही साथ धर्मकीर्ति तथा धर्मकीर्ति के टीकाकार शिष्य प्रज्ञागुप्तका नाम लिए जानेसे यह मालूम होता है कि उसका उल्लेख किसी खास समय के लिए नहीं है किन्तु एक ८० वर्ष जैसे लम्बे समयवाले युग के लिए है । इससे यह भी ज्ञात होता है कि धर्मकीर्ति इसिंग यात्रा विवरण लिखने तक जीवित थे । यदि राहुलजीकी कल्पनानुसार धर्मकीर्तिकी मृत्यु हो गई होती तो इत्सिंग जिस तरह भर्तृहरिको धर्मपालका समकालीन लिखकर उनकी मृत्युके विषयमें भी लिखता है। कि- 'उसे मरे हुए अभी ४० वर्ष हो गए उसी तरह अपने प्रसिद्ध ग्रन्थकार धर्मकीर्तिकी मृत्युपर भी आँसू बहाए बिना न रहता । परन्तु वह हेतुविद्या में पाण्डित्य न्यायद्वार, प्रज्ञप्तिहेतु, एकीकृत यद्यपि इस धर्मकीर्तिको हेतुविद्या के सुधारक रूपसे लिखता है; प्राप्त करनेके लिये पठनीय शास्त्रोंकी सूची में हेतुद्वारशास्त्र, हेत्वाभासद्वार, अनुमानोंपर शास्त्र, आदि ग्रन्थोंका ही नाम लेता है, धर्मकीर्तिके किसी भी प्रसिद्ध ग्रन्थका नाम नहीं लेता । इसके ये कारण हो सकते हैं - इत्सिंगने अपना यात्रा विवरण चाइनी भाषामें लिखा है अतः अनुवादकोंने जिन शब्दोंका हेतुद्वार, न्यायद्वार तथा हेत्वाभासद्वार अनुवाद किया है उनका अर्थ हेतुबिन्दु और न्यायबिन्दु भी हो सकता हो । अथवा धर्मकीतिको हेतुविद्या के सुधारक रूप में जानकर भी इत्सिंग उनके ग्रंथोंसे परिचित न हो । अथवा उस समय धर्मकीर्ति के ग्रन्थोंकी अपेक्षा अन्य आचार्योंके ग्रंथ नालन्दा में विशेष रूप से पठन-पाठनमें आते होंगे । इस विवेचनसे हमारा यह निश्चित विचार है कि - भर्तृहरि ( सन् ६०० से ६५० ) के साथ ही साथ उसके आलोचक कुमारिल ( सन् ६२० से ६८० ) की भी आलोचना करनेवाले, तथा प्रमाणवार्तिक, न्यायबिन्दु हेतुबिन्दु, प्रमाण विनिश्चय, सन्तानान्तरसिद्धि, वादन्याय, सम्बन्ध परीक्षा आदि ९ प्रौढ़, विस्तृत और सटीक प्रकरणों के रचयिता धर्मकीर्तिको समयावधि सन् ६३५ - ६५० से आगे लम्बानी ही होगी । और वह अवधि सन् ६२० से ६९० तक रखनो समुचित होगी। इससे हुएनसांगके द्वारा धर्मकीर्ति नामका उल्लेख न होनेका, तथा इत्सिंग द्वारा होनेवाले उल्लेखका वास्तविक अर्थ भी संगत हो जाता है । तथा तिब्बतीय इतिहासलेखक तारानाथका धर्मकीर्तिको तिब्बतके राजा स्रोङ सन् गम् पो का, जिसने सन् ६२९ से ६८९ तक राज्य किया था, समकालीन लिखना भी युक्तियुक्त सिद्ध हो जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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