SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 194
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : ११ अकलंकदेवने भर्तहरि कुमारिल तथा धर्मकीर्तिकी समालोचनाके साथ ही साथ प्रज्ञाकरगुप्त, कर्णकगोमि, धर्मोत्तर आदिके विचारोंका भी आलोचन किया है। इन सब आचार्योंके ग्रंथोंके साथ अकलंकके ग्रन्थोंकी आन्तरिक तुलना अकलंकके समयनिर्णयमें खास उपयोगी होगी। इसलिए अकलंकके साथ उक्त आचार्योंकी तुलना क्रमशः की जाती है भर्तृहरि और अव लंकः-भर्तृहरिके स्फोटवादकी आलोचनाके सिलसिले में अकलंकदेवने अपने तत्त्वार्थराजवार्तिक (पृ० २३१ ) में वाक्यपदीयकी ( ११७१) "इन्द्रियस्यैव संस्कारः शब्दस्योभयस्य वा।" इस कारिकामें वर्णित इन्द्रियसंस्कार, शब्दसंस्कार तथा उभयसंस्कार रूप तीनों पक्षोंका खंडन किया है। राजवार्तिक (पृ० ४०) में वाक्यपदीयको 'शास्त्रेषु प्रक्रियाभेदैरविद्येवोपवय॑ते"-वाक्यप० २।२३५ यह कारिका उद्धृत की गई है । सिद्धिविनिश्चय ( सिद्धिवि० टी० पृ० ५४६ से ) के शब्दसिद्धि प्रकरणमें भी स्फोटवादका खंडन है। शब्दाद्वैतवादका खंडन भी सिद्धिविनिश्चयमें (टी० पृ० ४५८ से) किया गया है। कुमारिल और अकलंक-अकलंकदेवके ग्रन्थोंमें कुमारिलके मन्तव्योंके आलोचनके साथ ही साथ कुछ शब्दसादृश्य भी पाया जाता है१-कुमारिल सर्वज्ञका निराकरण करते हुए लिखते हैं कि "प्रत्यक्षाद्यविसंवादि प्रमेयत्वादि यस्य च । सदभाववारणे शक्तं कोन तं कल्पयिष्यति ॥"-मी० श्लो० पृ० ८५ .. अर्थात-जब प्रत्यक्षादिप्रमाणोंसे अबाधित प्रमेयत्वादि हेतु ही सर्वज्ञका सदभाव रोक रहे हैं तब कौन उसे सिद्ध करनेकी कल्पना भी कर सकेगा? अकलंकदेव इसका प्रतिवन्दि उत्तर अपनी अष्टशती ( अष्टसह. पृ० ५८) में देते हैं कि-"तदेवं प्रमेयत्वसत्त्वादिर्यत्र हेतुलक्षणं पुष्णाति तं कथं चेतनः प्रतिषेद्धमर्हति संशयितुं वा" अर्थात् जब प्रमेयत्व और सत्त्व आदि अनुमेयत्वका हेतुका पोषण कर रहे हैं तब कौन चेतन उस सर्वज्ञका प्रतिषेध या उसके सद्भावमें संशय कर सकता है ? २-तत्त्वसंग्रहकार शान्तरक्षितके लेखानुसार कुमारिलने सर्वज्ञनिराकरणमें यह कारिका भी कही है कि "दश हस्तान्तरं व्योम्नो यो नामोत्प्लत्य गच्छति । न योजनशतं गन्तुं शक्तोऽभ्याशतैरपि ।"-तत्त्वसं० पृ० ८२६ अर्थात्-यह संभव है कि कोई प्रयत्नशील पुरुष अभ्यास करनेपर अधिकसे अधिक १० हाथ ऊँचा कूद जाय; पर सैकड़ों वर्षों तक कितना भी अभ्यास क्यों न करे वह १०० योजन ऊँचा कभी भी नहीं कूद सकता। इसी तरह कितना भी अभ्यास क्यों न किया जाय ज्ञानका प्रकर्ष अतीन्द्रियार्थके जानने में नहीं हो सकता। अकलंकदेव सिद्धिविनिश्चय ( टीका पृ० ४२५ B.) में इसका उपहास करते हुए लिखते हैं कि“दश हस्तान्तरं व्योम्नो नोत्प्लवेरन् भवादृशः । योजनानां सहस्रं किं वोत्प्लवेदधुना नरैः ॥" अर्थात्-जब शारीरिक असामर्थ्य के कारण आप दस हाथ भी ऊँचा नहीं कूद सकते तब दूसरोंसे हजार योजन कूदने की आशा करना व्यर्थ है। क्योंकि अमुक मर्यादासे ऊँचा कूदने में शारीरिकगुरुत्व बाधक होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy