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________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : ९ दूषयितुमुपन्यस्यति यथेत्यादि ।” इससे स्पष्ट है कि इस श्लोक में धर्मकीर्ति कुमारिलके वेदध्ययनवाच्यत्व हेतुका ही खंडन कर रहे हैं । इन उद्धरणोंसे यह बात असन्दिग्धरूपसे प्रमाणित हो जाती है कि - धर्मकीर्तिने ही कुमारिलका खंडन किया है न कि कुमारिलने धर्मकीर्तिका । अतः भर्तृहरिका समय सन् ६०० से ६५० तक, कुमारिलका समय सन् ६००से ६८० तक, तथा धर्मकीर्तिका समय सन् ६२० से ६९० तक मानना समुचित होगा । धर्मकीर्ति के इस समयके समर्थनमें कुछ और विचार भी प्रस्तुत किए जाते हैं धर्मकीर्तिका समय - डॉ० विद्याभूषण आदि धर्मकीर्तिका समय सन् ६३५ से ६५० तक मानते हैं । यह प्रसिद्धि है कि - धर्मकीर्ति नालन्दा विश्वविद्यालयके अध्यक्ष धर्मपालके शिष्य थे। चीनी यात्री हुएनसांग जब सन् ६३५ में नालन्दा पहुँचा तब धर्मपाल अध्यक्षपदसे निवृत्त हो चुके थे और उनका बयोवृद्ध शिष्य शीलभद्र अध्यक्षपद पर था । हुएनसांगने इन्हींसे योगशास्त्रका अध्ययन किया था । हुएनसांगने अपना यात्राविवरण सन् ६४५ ई० के बाद लिखा है । उसने अपने यात्रावृत्तान्तमें नालन्दा के प्रसिद्ध विद्वानोंकी जो नामावली दी है उसमें ये नाम हैं-धर्मपाल, चन्द्रपाल, गुणमति, स्थिरमति, प्रभामित्र, जिनमित्र, ज्ञानमित्र, शीघ्रबुद्ध और शीलभद्र । धर्मकीर्तिका नाम न देनेके विषयमें साधारणतया यही विर है, और वह युक्तिसंगत भी है कि - धर्मकीर्ति उस समय प्रारम्भिक विद्यार्थी होंगे । भिक्षु राहुल सांकृत्यायनजीका विचार है कि - 'धर्मकीर्तिकी उस समय मृत्यु हो चुकी होगी । चूँकि हुएनसांगको तर्कशास्त्र से प्रेम नहीं था और यतः वह समस्त विद्वानों के नाम देनेको बाध्य भी नहीं था, इसीलिए उसने प्रसिद्ध तार्किक धर्मकीर्तिका नाम नहीं लिया।' राहुलजीका यह तर्क उचित नहीं मालूम होता; क्योंकि धर्मकीर्ति जैसे युगप्रधानतार्किकका नाम हुएनसांगको उसी तरह लेना चाहिए था जैसे कि उसने पूर्वकालीन नागार्जुन या वसुबन्धु आदिका लिया है। तर्कशास्त्र से प्रेम न होनेपर भी गुणमति, स्थिरमति जैसे विज्ञानवादी तार्किकोंका नाम जब हुएनसांग लेता है तब धर्मकीर्तिने तो बौद्धदर्शन के विस्तार में उनसे कहीं अधिक एवं ठोस प्रयत्न किया है । इसलिए धर्मकीर्तिका नाम लिया जाना न्यायप्राप्त ही नहीं था, किन्तु हुएनसांगकी सहज गुणानुरागिताका द्योतक भी था । यह ठीक है कि - हुएनसांग सबके नाम लेनेको बाध्य नहीं था, पर धर्मकीर्ति ऐसा साधारण व्यक्ति नहीं था जिसकी ऐसी उपेक्षा अनजान में भी की जाती । फिर यदि धर्मकर्ता कार्यकाल गुणमति, स्थिरमति आदिसे पहिले ही समाप्त हुआ होता तो इनके ग्रन्थोंपर धर्मकीर्तिकी विशालग्रन्थ राशिका कुछ तो असर मिलना चाहिए था। जो उनके ग्रन्थोंका सूक्ष्म पर्यवेक्षण करनेपर भी दृष्टिगोचर नहीं होता । हुएनसांगने एक जिनमित्र नामके आचार्यका भी उल्लेख किया है । इत्सिंग के "धर्मकीर्तिने 'जिन' के पश्चात् हेतुविद्याको और सुधारा" इस उल्लेख के अनुसार तो यह स्पष्ट मालूम हो जाता है कि धर्मकीर्तिका कार्यकाल 'जिन' के पश्चात् था; क्योंकि हुएनसांगके जिनमित्र' और sfer 'जिन' एक ही व्यक्ति मालूम होते हैं । अतः यही उचित मालूम होता है कि-धर्मकीर्ति उस समय युवा थे जब हुएनसांगने अपना यात्राविवरण लिखा । दूसरा चीनी यात्री इल्सिंग था । इसने सन् ६७१ से ६९५ तक भारतवर्षकी यात्रा की । यह सन् ६७५ से ६८५ तक दस वर्ष नालन्दा विश्वविद्यालयमें रहा । इसने अपना यात्रावृत्तान्त सन् ६९१-९२में लिखा १. देखो वादन्यायकी प्रस्तावना | २. दिग्नागके प्रमाणसमुच्चयपर जिनेन्द्रविरचित टीका उपलब्ध है । संभव है ये जिनेन्द्र ही हुएनसांग के जिनमित्र हों । ४-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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