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________________ ८ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ दूरं पश्यतु वा मा वा तत्त्वमिष्टं तु पश्यतु । प्रमाणं दूरदर्शी चेदेत गृध्रानुपास्महे ||" -प्रमाणवा० १।३४-३५ अर्थात् - - जो हेय-दुख, उपादेय-निरोध, हेयोपाय- समुदय, और उपादेयोपाय -मार्ग इन चार आर्यसत्योंका जाता है वही प्रमाण है । उसे समस्त पदार्थों का जाननेवाला होना आवश्यक नहीं है । वह दूर-अतीन्द्रिय पदार्थोंको जाने या न जाने, उसे इष्टतत्त्वका परिज्ञान होना चाहिए । यदि दूरवर्ती पदार्थोंका द्रष्टा ही उपास्य होता हो तब तो हमको दूरद्रष्टा गृद्धोंकी उपासना पहिले करनी चाहिए । २ - कुमारिलने शब्दको नित्यत्व सिद्ध करनेमें जिन क्रमबद्ध दलीलोंका प्रयोग किया है, धर्मकीर्ति उनका प्रमाणवार्तिक में ( ३।२६५ से आगे ) खण्डन करते ३ - कुमारिलके 'वर्णानुपूर्वी वाक्यम्' इस वाक्यलक्षणका धर्मकीर्ति प्रमाणवार्तिक ( ३।२५९ ) में 'वर्णानुपूर्वी वाक्यं चेत्' उल्लेख करके उसका निराकरण करते हैं । ४ - कुमारिलके " नित्यस्य नित्य एवार्थः कृतकस्याप्रमाणता" - मी० श्लो० वेदनि० श्लो० १४ इस वाक्यका धर्मकीर्ति प्रमाणवार्तिक में उल्लेख करके उसकी मखौल उड़ाते हैं " मिथ्यात्वं कृतकेष्वेव दृष्टमित्यकृतकं वचः । सत्यार्थं व्यतिरेकेण विरोधिव्यापनाद् यदि || - प्रमाणवा० ३।२८९ ५ - कुमारिलके " अतोऽत्र पुन्निमित्तत्वादुपपन्ना मृषार्थता” । - मी० श्लो० चोदनासू० श्लोक० १६९ इस श्लोकका खंडन धर्मकीर्तिने प्रमाणवार्तिक स्वोपज्ञवृत्ति ( ३।२९१ ) में किया है - " ततो यत्किञ्चिन्मियार्थं तत्सर्वं पौरुषेयमित्य निश्चयात् ।” ६ - कुमारिलने " आप्तवादाविसंवादस ! मान्यादनुमानता" दिग्नागके इस वचनकी मीमांसाश्लोकवार्तिक ( पृ० ४१८ और ९१३ ) में समालोचना की है। इसका उत्तर धर्मकीर्ति प्रमाणवार्तिक ( ३।२१६ ) में देते हैं । ७ - कुमारिल श्लोकवार्तिक ( पृ० १६८ ) में निर्विकल्पक प्रत्यक्षका निम्नरूपसे वर्णन करते हैं"अस्ति ह्यालोचनाज्ञानं प्रथमं निर्विकल्पकम् । बालमूकादिविज्ञानसदृशं शुद्धवस्तुजम् ॥ धर्मकीर्ति प्रमाणवार्तिक ( २।१४१ ) में इसका "केचिदिन्द्रियजत्वादेर्बालधी वदकल्पनाम् । आहुबला'''''' उल्लेख करके खण्डन किया है । ८- कुमारिल वेद अपौरुषेयत्व समर्थन में वेदाध्ययनवाच्यत्व हेतुका भी प्रयोग करते हैं" वेदस्याध्ययनं सर्वं तदध्ययनपूर्वकम् । वेदाध्ययनवाच्यत्वादधुनाध्ययनं यथा ॥” - मी० श्लो० पृ० ९४९ धर्मकीर्ति अपौरुषेयत्वसाधक अन्य हेतुओंके साथ ही साथ कुमारिलके इस हेतुका भी उल्लेख करके खण्डन करते हैं— Jain Education International "यथाऽयमन्यतोऽश्र ुत्वा नेमं वर्णपदक्रमम् । वक्तुं समर्थः पुरुषः तथान्योऽपीति कश्चन ॥" - प्रमाणवा० ३।२४० प्रमाणवार्तिकस्वोपज्ञवृत्तिके टीकाकार कर्णकगोमि इस श्लोककी उत्थानिका इस प्रकार देते हैं"तदेवं कर्त्तुरस्मरणादिति हेतुं निराकृत्य अन्यदपि साधनम् वेदस्याध्ययनं सर्वं तदध्ययनपूर्वकम् इति For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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