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________________ ३ / कृतियोंकी समीक्षाएँ : ३७ विद्वान् सम्पादकने यहाँ इतनी अच्छी तुलनात्मक नय व्यवस्था प्रस्तुत की है कि उनके इस संक्षिप्त विवेचनमें ही नयवादकी पूर्ण और स्पष्ट मीमांसा हो जाती है और आचार्य सिद्धसेन एवं आचार्य अकलङ्कके मन्तव्योंका भी स्पष्टीकरण हो जाता है। सात भंगोंकी क्रय व्यवस्थामें (प्रस्तावना पु० सं० १०१ ) न्यायाचार्यजीका मत है कि अवक्तव्य मल भङ्ग है, अतः सप्तभङ्गोंके उल्लेख क्रममें अवक्तव्यका क्रम तीसरा होना चाहिये। अपने इस मन्तव्यके कारण आचार्य मलयगिरिने आचार्य अकलङ्कके मन्तव्यकी आलोचना की है, किन्तु श्वेताम्बर विद्वान् उपाध्याय यशोविजयने समन्तभद्र और सिद्धसेन आदिके मतका समर्थन किया है। ___ इस प्रकार हम देखते है कि डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्यने काफी मनन और चिन्तन करके इस प्रस्तावनाको लिखा है। जिसमें न केवल जैनदर्शन, अपितु जैनेतर दर्शनोंके मूल सिद्धान्तोंको प्रस्तुत कर उनका समाधान जैनदर्शनके परिप्रेक्ष्यमें खोजनेका सार्थक प्रयास किया है। इस विस्तृत प्रस्तावनामें उल्लिखित विषय वस्तु तथा तर्क एवं आगम-सम्मत समाधान प्रस्तुत करनेसे डॉ० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्यकी शोध-खोज एवं समालोचनात्मक दृष्टि एवं उनका अतुलनीय वैदुष्य मुखर हुआ है। GO Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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