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________________ ३६ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ इस तरह लघीयस्त्रयमें संग्रहीत तीनों ग्रन्थ अपने नाम को सार्थक करते हैं। जिनका प्रस्तुत प्रामाणिक सम्पादन कार्य पं. जीने वैज्ञानिक विधिसे किया है। वस्तुतः आ० अकलंकदेवके ग्रन्थोंका इस रूप में सम्पादन करना कोई साधारण कार्य नहीं है। इसके लिए पं० जीको जैन एवं जैनेतर अनेक प्राचीन ग्रन्थों और ग्रन्थकारोंका गहन अध्ययन, मनन और तुलनात्मक विवेचन करना पड़ा । आ० अकलंकदेवके साहित्य और उसमें प्रतिपाद्य विषयोंके तलस्पर्शी ज्ञानके बिना ऐसा सफल सम्पादन असम्भव कार्य था किन्तु उनके इस कार्यमें सफलतासे यही सिद्ध होता है कि पं० महेन्द्रकुमारजी भी उस महान विरासतके सच्चे प्रहरी थे । क्योंकि आचार्य अकलंकदेव जब आगमिक विषय पर कलम उठाते हैं तब उनके लेखनकी सरलता, विशदता एवं प्रसाद गुणका प्रवाह पाठकको पढ़ने ऊबने नहीं देता । राजवातिककी प्रसन्न रचना इसका अप्रतिम उदाहरण है। परन्तु जब वही अकलंक तार्किक विषयों पर लिखते हैं तब वे उतने ही दुरुह बन जाते है । यहाँ इनके प्रमाण विवेचनका विषय प्रस्तुत है प्रमाणके भेदोंके प्रसङ्गमें आचार्य अकलङ्कदेवके दृष्टिकोणको स्पष्ट करते हुये डॉ० सा० ने उसके भेदोंको जिस पद्धतिसे प्रस्तुत किया है उसका एक उदाहरण द्रष्टव्य है। उन्होंने अपनी प्रस्तावना (पृ० ४८) में लिखा है कि "प्रत्यक्षके दो भेद है-१. सांव्यवहारिक, २. मुख्य । सांव्यवहारिक प्रत्यक्षके दो भेद१. इन्द्रिय प्रत्यक्ष, २. अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष । इन्द्रिय प्रत्यक्ष-अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणादि ज्ञान । अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष-शब्द योजनासे पहले अवस्था वाले स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध ज्ञान ।" इसीको स्पष्ट करते हुये पण्डितजी लिखते हैं-हाँ ! इसमें स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोधको शब्द योजनाके पहले अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष कहा है उसे किसी भी अन्य आचार्यने स्वीकार नहीं किया। उन्हें सर्वांशमें अर्थात् शब्द योजनाके पूर्व और पश्चात-दोनों अवस्थाओंमें परोक्ष ही कहा है। यही कारण है कि आचार्य प्रभाचन्द्रने लघीयस्त्रयकी 'ज्ञानमाद्यं' कारिकाका यह अर्थ किया है कि-मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध ज्ञान शब्द योजनाके पहले और शब्द योजनाके बाद दोनों अवस्थाओं में श्रु त है अर्थात् परोक्ष है।" आगे मुख्य प्रत्यक्षका स्वरूप लिखा है कि-"इन्द्रिय और मनकी अपेक्षाके बिना, अतीन्द्रिय, व्यवसायात्मक, विशद, सत्य, अव्यवहित, अलौकिक, अशेष पदार्थोंको विषय करने वाले अक्रम ज्ञानको मख्य प्रत्यक्ष कहते हैं।" डॉ० सा० ने सर्वज्ञता पर विस्तारसे विचार किया है। सर्वप्रथम उन्होंने कुमारिलके मतकी समीक्षा की है। इस समीक्षासे पं० जीके जैन-बौद्धदर्शनके अतिरिक्त वैदिक दर्शनके मूलभूत ग्रन्थों के अध्ययन एवं उनकी समालोचनात्मक दृष्टि परिलक्षित होती है। पं० जीने 'अकल ग्रन्थत्रयम्' की प्रस्तावनाके मध्यमें पूर्वपक्षियों द्वारा उठाये गये अनेक प्रश्नोंका समाधान ऐसा तर्क एवं आग-सम्मत प्रस्तुत किया है कि सामान्य व्यक्ति भी उसे पढ़कर उसके हार्दको समझ सकेगा। आगे न्यायाचार्यजीने (प्रस्तावना ५० सं० ९४ में ) नयों और नयाभासोंका स्पष्ट एवं तुलनात्मक विवेचन किया है। नयोंके सन्दर्भ में आचार्य सिद्धसेनके कथनको युक्तिसंगत बनाते हये वे लिखते हैं किचंकि नैगम नय संकल्प मात्रग्राही है तथा संकल्प या तो अर्थ के अभेद अंशको विषय करता है या भेद अंशको। इसीलिये अभेद संकल्पी नंगमका संग्रहनयमें तथा भेद संकल्पी नैगमका व्यवहार नयमें अन्तर्भाव करके आचार्य सिद्धसेनने नैगम नयको स्वतन्त्र नय नहीं माना है। इनके मतसे संग्रहादि छह ही नय हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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