SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 169
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विविध तीर्थकल्प : एक समीक्षात्मक अध्ययन • डॉ० कस्तूरचन्द्र कासलीवाल, जयपुर विविधतीर्थकल्प डॉ० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य द्वारा संस्कृतसे हिन्दी गद्य में अनूदित एक ऐसी कृति है जिसका सबसे कम अध्ययन हुआ है । जिसकी चर्चा नहीं के बराबर हो सकी है। इसका कारण डॉ० साहबके न्याय शास्त्रके बड़े-बड़े ग्रन्थोंका संपादन, भूमिका लेखनकी विशालतामें दब जाना है या ओझल हो जाता है । संस्कृतसे हिन्दी में अनुवादित उनकी यह एक मात्र कृति है। विविधतीर्थकल्पकी रचना श्वेताम्बर जैनाचार्य श्री जिनप्रभसूरिने संवत् १३८५ ज्येष्ठ शुक्ला सप्तमीके दिन की थी। १४वीं शताब्दीका वह समय मुसलिम आक्रमणकारियों द्वारा मन्दिरोंको नष्ट करनेका था। इसके प्रथम कल्पमें लिखा है कि जावडि शाह द्वारा स्थापित भगवान् आदिनाथका सुन्दर प्रतिबिम्ब संवत् १३६९ में मलेच्छों द्वारा नष्ट किये जानेके २ वर्ष पश्चात् अर्थात् संवत् १३७१ में श्रेष्ठी समरशाहने उस भग्न मलनायक प्रतिमाका पुनरुद्धार करबाया और अभूतपूर्व धर्मलाभ लिया। श्री जिनप्रभसूरिने अपने विविधतीर्थकल्पके शत्रुजयकल्पमें लिखा है कि स्वनामधन्य मंत्री वस्तुपालने विचारा कि कलिकालमें मलेच्छ लोग इस तीर्थका विनाश कर देंगे इसने उसने भगवान् आदिनाथ एवं भगवान् पुण्डरीककी भव्य मूर्तियाँ बनवाकर तलघरमें चुपचाप विराजमान कर दीं । उनको जो आशंका थी वही हुआ और भगवान आदिनाथकी प्रतिमाको मलेच्छोंने नष्ट कर दिया। विविधतीर्थकल्प एक ऐतिहासिक दस्तावेज है जिनका श्री जिनप्रभसूरिने अपने कल्पमें उल्लेख किया है । इसी कल्प कृतिका डॉ. पं० महेन्द्र कुमारजी ने हिन्दी गद्यमें अनुवाद करके हिन्दी भाषा-भाषी पाठकोंके लिए एक ऐतिहासिक रचनाको सुलभ बना दिया है । लेकिन हमारे पास जो पाण्डुलिपि है उसमें पं० महेन्द्रकुमारजी के नामका कहीं उल्लेख नहीं मिलता है। और इस कृतिका कब उन्होंने हिन्दी गद्यानुवाद किया इस सम्बन्धमें भी कृति मौन है। फिर भी यह 'विविधतीर्थकल्प' कृतिको हिन्दी गद्यमें उन्होंने अनादित की है इसमें कोई सन्देह नहीं है। अब हम यहाँ इसके प्रत्येक कल्पका परिचय उपस्थित कर रहे हैं जिससे पाठकोंको इसकी विषय वस्तुसे परिचय मिल सके । श्री जिनप्रभसूरि श्वेताम्बर संत थे इसलिये उन्होंने तीर्थोंका इतिहास भी उन्होंने इसी दष्टिसे किया है इसके अतिरिक्त संवत् १३८५ में देशमें कौन-कौनसे जैनतीर्थ थे इसका भी प्रस्तुत कृतिसे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है । १-प्रथम कल्प शत्रुजय कल्प यह इस कृतिका प्रथम कल्प है। शत्रुजय तीर्थ श्वेताम्बर समाजका महान् तीर्थ है। जैसे दिगम्बर समाजमें सम्मेदशिखरजी का माहात्म्य है उसी तरह श्वेताम्बर जैन समाजमें शत्रुजय तीर्थका महत्त्व है । शQजय पर्वतसे महातपस्वी पुडरोकने पाँच करोड़ मुनियों के साथ मोक्ष प्राप्त किया था इसलिये इसे पुंडरीक तीर्थ भी कहते हैं । इस गिरिराज से अबतक अनगिनत तीर्थकर एवं साधुमें मोक्ष पद प्राप्त किये, वर्तमानके सभी चौबीस तीर्थकर इस पर्वत पर पधारे थे और वहीं उनका समवशरण रचा गया था। प्रथम चक्रवर्ती भरत महाराजने यहाँ एक योजन लम्बा चौड़ा चैत्यालय बनाया था। जिनमें आदिनाथ स्वामीकी मल नायक प्रतिमा विराजमान की गयी थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy