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________________ ३ / कृतियोको समीक्षाएँ : ३५ गया है, उन उद्धरणोंको भी विभिन्न ग्रन्थोंसे संकलित कर अपने कथनकी पुष्टि की है। इसी प्रकार अन्तर्बाह्य साक्ष्योंके द्वारा न्यायविनिश्चय और प्रमाणसंग्रहके अकलङ्ककर्तृक होनेकी पुष्टि एवं समर्थन किया है, जिससे डॉ० सा० के अल्पायुमें ही विविध सम्प्रदायोंके शास्त्रोंके पारायण करनेकी जानकारी मिलती है । वे जिस ग्रन्थका अध्ययन करते थे उसमें उनकी शोध-खोज दृष्टि सतत् बनी रहती थी। वे ग्रन्थका मात्र वाचन ही नहीं करते थे, अपितु सम्पूर्ण ग्रन्थकी शल्यक्रिया करके उसे पूर्णतः आत्मसात् कर लेते थे। पण्डितजीने पहले ग्रन्थत्रयका संक्षेपमें सामान्य परिचय दिया है । तत्पश्चात् उनके विषय पर एक साथ विचार किया है। इससे आचार्य अकलङ्कदेवके एतद्विषयक विवेचनका समवेत रूपमें हम सभीको ज्ञान हो जाता है। इस ग्रन्थकी सम्पादन कलाका सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण विषय है इस ग्रन्थकी प्रस्तावनाके अन्तर्गत सुप्रसिद्ध प्राचीन जैनेतर प्रमख दार्शनिक ग्रन्थकारोंके ग्रन्थों और विषयोंसे आचार्य अकलंकके ग्रन्थोंका तुलनात्मक अध्ययन । यहाँ मुख्यतः भर्तृहरि, कुमारिल, धर्मकीर्ति, प्रभाकरगुप्त, कर्णकगोमि, धर्मकीर्तिके यशस्वी टीकाकार धर्मोत्तर, शान्तरक्षित आदि अनेक ग्रन्थकारोंसे आचार्य अकलंकदेवका तुलनात्मक, समीक्षात्मक और विवेचनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है जो परस्पर आदान-प्रदान, योगदान एवं प्रभाव आदि दृष्टियोंसे अध्ययन हेतु अति महत्त्वपूर्ण है। ग्रन्थ त्रयके नामका इतिहास तथा उनका परिचय प्रस्तुत करते हुए पं० जीने प्रथम ग्रन्थके परिचयमें स्वयं लिखा है कि "लघीयस्त्रय नामसे मालम होता है कि यह छोटे-छोटे तीन प्रकरणोंका एक संग्रह है। ग्रन्थ बनाते समय अकलंकदेवको 'लघीयस्त्रय' नामकी कल्पना नहीं थी। उनके मनमें तो दिङ्नागके न्यायप्रवेश जैसा एक जैनन्यायप्रवेश बनाने की बात घूम रही थी। लघीयस्त्रयके परिच्छेदोंका प्रवेशरूपसे विभाजन तो न्यायप्रवेशको आधार माननेकी कल्पनाका स्पष्ट समर्थन करता है । "मुझे ऐसा लगता कि यह सूझ अनन्तवीर्य आचार्य की है, क्योंकि लघीयस्त्रय नामका सबसे पुराना उल्लेख सिद्धिविनिश्चयटीकामें मिलता है । लघीयस्त्रयके इसी संस्करणके आधार पर इसका हिन्दी अनुवाद सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचंदजी द्वारा कुछ वर्ष पूर्व किया गया, जो श्री गणेश वर्णी दि० जैन संस्थान नरिया, वाराणसी से शीघ्र प्रकाशित हो रहा है। द्वितीय ग्रन्थ "न्यायविनिश्चय" है। इसका नाम धर्मकीर्तिके गद्यपद्यमय "प्रमाणविनिश्चय" का अनुकरण लगता है । न्यायविनिश्चयमें प्रत्यक्ष, अनुमान और प्रवचन-नामके तीन प्रस्ताव है। अतः संभव है कि अकलंकके लिए विषयकी पसंदगीमें तथा प्रस्तावके विभाजनमें आ० सिद्धसेन कृत न्यायावतार प्रेरक हो और इसीलिए उन्होंने न्यावतारके 'न्याय' के साथ 'प्रमाणविनिश्चय' के 'विनिश्चय' का मेल बैठाकर न्यायविनिश्चय नाम रखा हो। ___लघीयस्त्रयमें तृतीय ग्रन्थ 'प्रमाणसंग्रह है। इसकी भाषा विशेषकर विषय तो अत्यन्त जटिल तथा कठिनतासे समझने लायक प्रमेय-बहुल ग्रन्थ है। इसकी प्रौढ़ शैलीसे ज्ञात होता है कि यह इनकी अन्तिम कृति है. जिसमें इन्होंने अपने यावत् अवशिष्ट विचारोंके लिखनेका प्रयास किया है, इसीलिए प्रमाणों-युक्तियोंका संग्रह-रूप यह ग्रन्थ इतना गहन हो गया है । पं० सुखलालजी संघवीके अनुसार इस ग्रन्थका नाम दिङ्नामके प्रमाणसमच्चय तथा शान्तरक्षितके तत्त्वसंग्रहका स्मरण दिलाता है। किन्तु पं० महेन्द्रकुमारजीके अनुसार तत्त्वसंग्रहके पहिले भी प्रशस्तपाद भाष्यका “पदार्थसंग्रह" नाम प्रचलित रहा है। संभव है कि संग्रहान्त नाम पर इसका भी कुछ प्रभाव हो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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