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________________ न्यायविनिश्चय-विवरण : एक मूल्यांकन • डॉ० शीतलचन्द जैन, जयपुर भारतीय दर्शन में जैनदर्शनका एक विशिष्ट स्थान है और जैनदर्शनके क्षेत्रमें आचार्य श्रीमद्भट्टाकलंकदेव द्वारा लिखित न्यायविनिश्चय अद्वितीय ग्रन्थरत्न है। इस ग्रन्थके पद्य भागपर प्रबल तार्किक स्याद्वादविद्यापति वादिराजसूरिकृत तात्पर्य विद्योतिनी व्याख्यान रत्नमाला उपलब्ध है जिसका नाम न्यायविनिश्चय-विवरण है । जैसा कि वादिराजकृत श्लोकसे प्रकट है प्रणिपत्य स्थिरभक्त्या गुरून् पदानप्युदारबुद्धिगुणान् । न्यायविनिश्चयविवरणमभिरमणीयं मया क्रियते ॥ उक्त श्लोकसे स्पष्ट है कि इसका नाम न्यायविनिश्चय विवरण ही है, अलंकार नहीं। इस विषय पर विद्वान् संपादकने काफी महत्त्वपूर्ण प्रमाण उपस्थित कर विमर्श किया है। रन्थका संपादन २०वीं शताब्दिके प्रसिद्ध मर्धन्य दार्शनिक विद्वान् पं० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य द्वारा किया गया है। पं० जी की जो संपादित कृतियाँ है उनमें आचार्य भट्टाकलंकदेव द्वारा रचित ग्रंथ प्रमख हैं। आपक प्रस्तावनाओंको पढ़कर ग्रंथका रहस्य सुगमतासे समझमें आ जाता है। वस्तुतः प्राचीन ग्रन्थोंमें दार्शनिक ग्रन्थोंका सम्पादन अति दुसाध्य कार्य है। इस कार्यके लिये निष्ठा, समय, शक्तिके साथ विद्वत्ता अत्यन्त अपेक्षित है । क्योंकि दार्शनिक ग्रन्थोंमें ग्रन्थान्तरोंके अवतरण पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष दोनोंमें प्रचुर मात्रामें आते हैं उन सबका स्थान खोजना तथा उपयुक्त टिप्पणियोंका संकलन आदि सभी कार्य धैर्य और स्थिरताके बिना नहीं सध सकते विशेषकर उन ग्रन्थों के सम्पादनमें जिनका मूल भाग उपलब्ध न हो और विवरणकी प्रतियां अशद्धियोंका पुञ्ज हों ऐसी स्थितिमें सम्पादकको प्रतिभाकी समीक्षा विद्वान् ही कर सकते हैं। हम जैसे अत्यल्पबुद्धि वाले तो उनकी सम्पादित कृतियोंका मूल्यांकन ही कर सकेंगे। प्रस्तुत कृति न्यायविनिश्चयविवरण दो भागोंमें विभक्त है। इसमें कुल तीन प्रस्ताव हैं जिसमें प्रथम भागके प्रथम प्रस्तावमें प्रत्यक्षकी विवेचना है और द्वितीय भागके द्वितीय एवं तृतीय प्रस्ताबमें क्रमशः अनुमान एवं प्रवचनकी विवेचना है । ग्रन्थकारने सर्वप्रथम न्यायके विनिश्चय करने की प्रतिज्ञा की है। वे न्याय अर्थात् स्याद्वादमुद्रांकित आम्नायको कलिकाल दोषसे गुण द्वेषी व्यक्तियों द्वारा मलिन किया हआ देखकर विचलित हो उठते हैं और भव्य पुरुपोंकी हितकामना से सम्यग्ज्ञान-वचन रूपी जलसे उस न्याय पर आये हए मलको दूर करके उसको निर्मल बनानेके लिए कृतसंकल्प होते हैं। जिसके द्वारा वस्तु स्वरूपका निर्णय किया जाय उसे न्याय कहते हैं । अर्थात् न्याय उन उपायोंको कहते हैं जिनसे वस्तु तत्त्वका निश्चय हो। ऐसे उपाय तत्त्वार्थसूत्र में प्रमाण और नय दो तथा इनके भेद-प्रभेद ही निर्दिष्ट हैं। विद्वान सम्पादकने अपने मन्तव्यमें लिखा है कि दार्शनिक क्षेत्र में दर्शनकी व्याख्या बदली है और वह चैतन्याकारकी परिधिको लाँधकर पदार्थों के सामान्यावलोकन तक जा पहुँची परन्तु सिद्धान्त ग्रन्थों में दर्शनका अनुपयुक्त दर्शन तलवत ही वर्णन है। विद्वान सम्पादकने अकलंकके ज्ञानकी साकारता विषयक विवेचनमें धवला-जयधवलाका आधार लेते हए न्यायविनिश्चय-विवरणका युक्तिसंगत तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तावनामें प्रस्तुत किया है। इस प्रस्तावना को पढ़कर ग्रन्थकी कारिकाओंके हृदयको समझने में कठिनाई नहीं होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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