SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३ / कृतियोंकी समीक्षाएँ : २९ अर्थ सामान्य विशेषात्मक और द्रव्य पर्यायात्मक है, के विवेचन प्रसंग में सुयोग्य विद्वान्ने ग्रन्थको आधार बनाते हुये इतर भारतीय दार्शनिकोंकी समालोचना करते हुए राहुल सांकृत्यायनके विचारोंको विस्तारसे उल्लेख करके समीक्षा की है और जैनदर्शनकी दृष्टिसे पदार्थकी कैसी व्यवस्था है इसको सूक्ष्मातिसूक्ष्म तर्कों के माध्यम से विषयको समझाया है । इसी तरह विद्वान् सम्पादकने प्रत्यक्ष के भेदोंके उत्तरवर्ती आचार्यों द्वारा मान्य भेदोंको स्पष्ट करते हुए किये हैं: - १ - इन्द्रिय प्रत्यक्ष २- अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष विमर्श में आचार्य अकलंक द्वारा मान्य भेद और लिखा है कि अकलंक देवने प्रत्यक्षके तीन भेद ३- अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष । चक्षु आदि इन्द्रियोंसे रूपादिकका स्पष्ट ज्ञान इन्द्रिय प्रत्यक्ष है । मनके द्वारा सुख आदिकी अनुभूति मानस प्रत्यक्ष है । अकलंकदेवने लघीयस्त्रयस्ववृत्तिमें स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोधको अतिन्द्रिय प्रत्यक्ष कहा है । इसका अभिप्राय इतना ही है कि-मति, स्मृति, संज्ञा, चिंता और अभिनिबोध ये सब मतिज्ञान हैं, मतिज्ञानावरण के क्षयोपशमसे इनकी उत्पत्ति होती है । मतिज्ञान इन्द्रिय और मनसे उत्पन्न होता है । इन्द्रियजन्य मतिज्ञानको जब संव्यवहारमें प्रत्यक्ष रूपसे प्रसिद्धि होनेके कारण इन्द्रियप्रत्यक्ष मान लिया तब उसी तरह मनोमति रूप स्मरण प्रत्यभिज्ञान तर्क और अनुमानको भी प्रत्यक्ष ही कहना चाहिये । परन्तु संव्यवहार इन्द्रियजन्य मतिको तो प्रत्यक्ष मानता है पर स्मरण आदि को नहीं । अतः अकलंककी स्मरण आदिको अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष माननेकी व्याख्या उन्हीं तक सीमित रही। वे शब्दयोजना के पहिले स्मरण आदिको मतिज्ञान और शब्दयोजना के बाद इन्हींको श्रुतज्ञान भी कहते | पर उत्तरकालमें असंकीर्ण प्रमाण विभागके लिए - " इन्द्रियमति और मनोमतिको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष, स्मृति आदिको परोक्ष, श्रुतको परोक्ष और अवधि, मन:पर्यय तथा केवलज्ञान ये तीन ज्ञान परमार्थ प्रत्यक्ष” यही व्यवस्था सर्वस्वीकृत हुई । न्यायविनिश्चयविवरणके द्वितीय भागकी विस्तृत प्रस्तावना में प्रमाण विभागकी चर्चा करते हुए विद्वान् सम्पादकने लिखा है कि द्वितीय भागके दो प्रस्तावों में परोक्ष प्रमाणके विषयमें आचार्य अकलंकदेवने जैनदार्शनिक क्षेत्रमें एक नई व्यवस्था दी । अकलंकदेवने पांच इंद्रिय और मनसे होनेवाले ज्ञानको जो कि आगमिक परिभाषा में परोक्ष था, सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कोटिमें लिया और स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, आभिनिबोधिक और श्रुत इन पाँचोंको आगमानुसार परोक्ष प्रमाण कहा है। प्रवचन प्रस्ताव में सर्वज्ञता के विषय में पर्याप्त ऊहापोह किया है । विद्वान् लेखकने अकलंकके अभिप्राय को समझाने के लिए सर्वज्ञताका इतिहास बताते हुए लिखा है कि सर्वज्ञताके विकासका एक अपना इतिहास भी है । भारतवर्षकी परम्पराके अनुसार सर्वज्ञताका सम्बन्ध भी मोक्षसे था । मुमुक्षुओंके विचारका मुख्य विषय यह था कि मोक्षके उपाय, मोक्षका आधार, संसार और उसके कारणोंका साक्षात्कार हो सकता है या नहीं । विशेषतः मोक्ष प्राप्तिके उपायोंका अर्थात् उन धर्माgoraint जिनसे आत्मा बन्धनोंसे मुक्त होता है, किसीने स्वयं अनुभव करके उपदेश दिया है या नहीं ? वैदिक परम्पराओंके एक भागका इस सम्बन्धमें विचार है कि धर्मका साक्षात्कार किसी एक व्यक्तिको नहीं हो सकता, चाहे वह ब्रह्मा, विष्णु या महेश्वर जैसा महान भी क्यों न हो ? धर्म तो केवल अपौरुषेय वेदसे ही जाना जा सकता है । वेदका धर्मसे निर्बाध और अन्तिम अधिकार है । उसमें जो लिखा है वही धर्म है । मनुष्य प्रायः रागादि द्वेषोंसे दूषित होते हैं और अल्पज्ञ भी । यह सम्भव ही नहीं है कि कोई भी मनुष्य किसी भी सम्पूर्ण निर्दोष या सर्वज्ञ बनकर धर्म जैसे अतीन्द्रिय पदार्थोंका साक्षात्कार कर सके । विद्वान् सम्पादकने न्यायविनिश्चयविवरणके दोनों भागोंकी प्रस्तावनाओंमें जो चिन्तनपूर्ण प्रमेय दिया है वह बिल्कुल मौलिक, महत्त्वपूर्ण एवं नया है । जो दार्शनिक विद्वानोंके लिए अत्यन्त अनुकरणीय, बिचारणीय एवं दिशाबोध देने वाला है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy