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________________ २२ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ दिये गये ताकि किसी विद्वान् पाठकको उस अवतरणके सही ग्रन्थ और ग्रन्थकारका नाम पता हो तो वहाँ उसे लिख सके और सम्पादकको भी सूचित कर सके ताकि आगेके संस्करणोंमें उन्हें सम्मिलित किया जा सके । इन ग्रन्थकी ७८ पृष्ठीय विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावनामें पं० जीने जहाँ मूलग्रन्थकार आ० माणिक्यनन्दि एवं आ० प्रभाचन्द्रके व्यक्तित्व एवं कृतित्वपर व्यापक रूपमें प्रकाश डाला है वहीं जैनेतर एवं जैन पूर्ववर्ती एवं परवर्ती अनेक भारतीय दार्शनिकों एवं उनके ग्रंथोंसे प्रमेयकमलमार्तण्डके प्रतिपाद्य विषयकी जो तुलना, प्रभाव एवं समीक्षा प्रस्तुत की है वह अपने आपमें तुलनात्मक अध्ययन एवं अनुसंधानकी दृष्टिसे बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। वेद, उपनिषद्, स्मृति, पुराण, महाभारत, गीता, पतञ्जलि, भर्तृहरि, व्यासभाष्य आदि ग्रन्थोंके जिन अंशोंको आ० प्रभाचन्द्रने उद्धृत किया है, उन सन्दर्भोको तथा सांख्य आदि दार्शनिकोंके सन्दर्भोको भी सम्पादकजीने उद्धृत किया है। इस कार्यसे अनेक ऐसे ग्रन्थ, ग्रन्थकार एवं ऐसे सन्दर्भ प्रकाशमें आये हैं जो अब उपलब्ध नहीं होते । जैसे प्रशस्तपाद ( कणादसूत्र भाष्यकार-ई० पाँचवीं शती) के ईश्वरवादके पूर्वपक्षमें प्रमेयकमलमार्तण्डके पृ० २७० पर 'प्रशस्तमतिना च" लिखकर “सर्गादौ पुरुषाणां व्यवहारो" इत्यादि अनुमान उद्धत किया है। किन्तु यह अनुमान प्रशस्तपादभाष्यमें नहीं है। इसी तरह आ० प्रभाचन्द्रने न्यायकुमुदचन्द्र में सांख्यदर्शनके कुछ ऐसे वाक्य और कारिकाएँ उद्धृत की हैं जो उपलब्ध ग्रन्थोंमें प्राप्त नहीं होतों। प्रशस्तपादभाष्यके पुरातन टीकाकार आ० व्योमशिवकी व्योमवती टीकामें प्रतिपाद्य अनेक मतोंका आ० प्रभाचन्द्रने खण्डन किया है । आ० प्रभाचन्द्र के इन उल्लेखोंसे व्योमशिवके सही काल-निर्धारणमें बहुत सहायता प्राप्त हुई है। इसी तरह उद्योतकर, जयन्तभट्ट, वाचस्पति, शबरऋषि, कुमारिल, मण्डनमिश्र, प्रभाकर, शङ्कराचार्य, सुरेश्वर आदि वैदिक दार्शनिकों तथा अश्वघोष, नागार्जुन, वसुबन्धु, दिङ्नाग, धर्मकीर्ति, प्रभाकर गुप्त, शान्तरक्षित, कमलशील, अर्चट, धर्मोत्तर और ज्ञानश्री जैसे बौद्धदार्शनिकों तथा दिगम्बर एवं श्वेताम्बर जैन परम्पराओंके पचाससे भी अधिक ग्रन्थ एवं ग्रन्थकारोंसे आ० प्रभाचन्द्र द्वारा लिखित एवं उद्धत ग्रन्थगत विषयकी महत्त्वपूर्ण समीक्षा की गई है। यह बृहद् प्रस्तावना फाल्गुन शुक्ला द्वादशी वीर निर्वाण संवत् २४६७ के आष्टाह्निक पर्वमें पूर्ण हुई। इस महत्वपूर्ण प्रस्तावनाके बाद न्यायप्रवेश, न्यायबिन्दु, न्यायविनिश्चय, न्यायसार, न्यायावतार, प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कार, प्रमाणपरीक्षा, प्रमाणमीमांसा, प्रमाणसंग्रह, लघीयस्त्रय स्ववृत्ति इत्यादि अनेक ग्रन्थोंसे परीक्षामुख सूत्रोंकी तुलना प्रस्तुत की गई है। इससे इन ग्रन्थगत सूत्रोंके बिम्ब-प्रतिबिम्ब भावका स्पष्ट बोध होता है। ग्रन्थके अन्तमें परीक्षामुख सत्रपाठ, प्रमेयकमलमार्तण्डगत अवतरणों, परीक्षामख एवं प्रमेयकमलमार्तण्डके लाक्षणिक शब्दों, उल्लिखित ग्रन्थ एवं ग्रन्थकारों, विशिष्ट शब्दोंकी सची और सबसे अन्त में आरा के जैन सिद्धान्त भवनको हस्तलिखित प्रतिके पाठान्तर-ये सब शोधपूर्ण परिशिष्ट प्रस्तुत किये गये है । ६९४ पृष्ठीय मूलग्रन्थमें प्रत्येक सूत्रका जिस तरह विषयका स्पष्ट प्रतिपादन और पूर्वपक्ष एवं उत्तरपक्षके विविध प्रमाण उद्धत करते हुए उनका विशद विवेचन, साथ ही सन्दर्भ और कठिन शब्दोंको स्पष्ट करनेके लिए जो टिप्पण दिये गये हैं-ये सब विषयको समझनेका मार्ग प्रशस्त करते हैं। __ इस प्रकार प्रमेयकमलमार्तण्डके उत्कृष्ट सम्पादन-कार्यसे जहाँ इस ग्रन्थकी महत्ता और उपयोगिता प्रकाशमें आई है, वहीं सम्पूर्ण भारतीय दार्शनिक क्षेत्रने भी इसका बहुमानपूर्वक मल्यांकन किया। इस कार्य से डा. महेन्द्रकुमारजीमें भी विद्वत्ता, सम्पादन-पटुता, अन्यान्य दर्शनोंका गहन अध्ययन एवं उनके प्रति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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