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________________ ३ | कृतियोंको समीक्षाएँ : २१ प्रकारके कार्योंको ईमानदारीसे सम्पादित करने में ही विश्वास रखते हैं वे पं० महेन्द्रकुमारजीकी सारस्वत साधनासे प्रसूत इस अप्रतिम कृतिका एक आदर्श कृतिके रूपमें मूल्यांकन किये बिना नहीं रह सकता । पं० जीने स्वयं इसके सम्पादकीय आद्य वक्तव्यमें प्रस्तुत संस्करणकी विशेषताओंका उल्लेख करते हुए लिखा है जब न्यायकुमुदचन्द्रका सम्पादन चल रहा था तब श्रीयुत कुन्दनलालजी जैन तथा पं० सुखलालजी आग्रहसे मुझे प्रमेयकमलमार्तण्डके पुनः सम्पादनका भी भार लेना पड़ा । इसके प्रथम संस्करणके संपादक पं० बंशीधरजी शास्त्री, सोलापुर थे । मैंने उन्हींके द्वारा सम्पादित प्रतिके आधारसे ही इस संस्करणका सम्पादन किया है । मैंने मलपाठका शोधन, विषय वर्गीकरण, अवतरण निर्देश तथा विरामचिह्न आदिका उपयोगकर इसे कुछ सुन्दर बनानेका प्रयत्न किया है। प्रथम तो यही विचार था कि न्यायकुमुदचन्द्रकी ही तरह इसे तुलनात्मक तथा अर्थबोधक टिप्पणोंसे पूर्ण समृद्ध बनाया जाय, और इसी संकल्पके अनुसार प्रथम अध्यायमें कुछ टिप्पण भी दिये गए हैं। ये टिप्पण अंग्रेजी अंकोंके साथ चाल टिप्पणके नीचे पृथक् मुद्रित कराए हैं । परन्तु प्रकाशककी मर्यादा, प्रेसकी दूरी आदि कारणोंसे उस संकल्पका दूसरा परिच्छेद प्रारम्भ नहीं हो सका और यह प्रथम परिच्छेदके साथ ही समाप्त हो गया। आगे तो यथासंभव पाठशद्धि करके ही इसका संपादन किया है। संपादक न्यायाचार्यजीके उपर्यक्त कथनसे स्पष्ट है कि वे इसे और भी अनेक टिप्पणों, पाठभेदों आदिसे युक्त प्रकाशित करानेके इच्छुक थे किन्तु अनेक कठिनाइयोंके कारण वे ऐसा नहीं कर सके । फिर भी पं० बंशीधरजी, सोलापुर द्वारा सम्पादित प्रथम संस्करणकी अपेक्षा न्यायाचार्यजो द्वारा सम्पादित इस द्वितीय संस्करणमें अनेक विशेषतायें है । इनमेंसे कुछ इस प्रकार हैं-प्रस्तुत ग्रन्थका सम्पादन वैज्ञानिक विधि से अर्थात् स्पष्ट और विस्तृत विषयसूची दी गई है, अनेक परिशिष्ट दिये गये हैं और शब्दानुक्रमणिका भी है । इनसे पाठकको इतने बृहद् मलग्रन्थमें भी सम्बद्ध विषयको खोजने में कठिनाई नहीं होती। __प्रमेयकमलमार्तण्ड ग्रन्थका दूसरा नाम परीक्षामुखालङ्कार भी है अतः तदनुरूप प्रस्तुत संस्करणमें मल रीक्षामुखके सूत्रोंको उसकी वृत्तिके पूर्व यथास्थान रखकर व्यवस्थित किया है। इससे तद-तद् सूत्रकी व्याख्याका पृथक्करण हो गया, अन्यथा कुछ पाठकोंको पता ही नहीं चल पाता था कि किस सूत्रको व्याख्या कहाँसे प्रारम्भ है और कहाँ समाप्त है। इसी तरह प्रकरण और अर्थकी दृष्टिसे अशुद्धियोंका संशोधन भी किया गया है। यद्यपि प्रथम संस्करणमें मुद्रित टिप्पण एक ही हस्तलिखित प्रतिसे लिये गये थे। अतः उनमें कुछ-कुछ अस्तव्यस्तता और अशुद्धियाँ दिखलाई पड़ती थीं किन्तु प्राचीन टिप्पणोंको मौलिकताके संरक्षणके उददेश्यसे न्यायाचार्यजीने उन्हें इस अपने संस्करणमें भी यथावत् रहने दिया किन्तु साथ ही कुछ अन्य प्रतियोंके और भी टिप्पण साथमें दे दिये हैं। प्रस्तुत संस्करणको और भी अधिक उपयोगी तथा महत्त्वपूर्ण बनानेके लिए न्यायाचार्यजीने जो बहत ही श्रमसाध्य कठिन कार्य किया है, वह है विविध जैन और जैनेतर मलग्रन्थोंके अनेकों अवतरण, जिन्हें आचार्य प्रभाचन्द्रने अपने प्रतिपाद्य विषयकी पुष्टि हेतु अपने इस ग्रन्थमें उद्धृत किया था और हस्तलिखित ग्रन्थोंकी प्रतिलिपियाँ करते समय लिपिकारोंने लगभग उन्हें मलग्रन्थमें हो सम्मिलित कर लिया था। न्यायाचार्यजीने उन अवतरणोंको अलग दिखलानेकी दृष्टिसे उन उद्धरणोंको इनवर्टेड कामा ( "....'' ) में रख कर प्रस्तुत किया है । इतना ही नहीं, जिन-जिन ग्रन्थोंके ये उद्धरण हैं, उन्हें उन-उन ग्रन्थोंमें खोजकर पृष्ठ सहित उन ग्रन्थोंके नामोल्लेख भी कोष्ठकमें कर दिये गये है। अज्ञात अवतरणोंके बाद खाली ब्रकेट छोड़ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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