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________________ ( 8 ) क्रियाओं द्वारा जीव तीर्थ कर नाम कर्म की उपार्जना कर लेता है जैसे किइमे हि यणं वीसाएहि य कारणहिं आसेविय बहुलीकएहिं तित्थयर नाम गोयं कम्मं निव्वत्तिंसु, तंजहा- 'अरहंत 1 सिद्ध 2 पवयण 3 गुरु 4 थेर 5 बहुस्सुए 6 तवस्सीसु७ वच्छल्लयाय तेसिं अभिक्खणाणोव ओगेय 8 // 1 // दंसण हविणए 10 आवस्सए य 11 सीलब्बए निरइयारं 12 खणलव 13 तव 14 च्चियाए 15 वेयावच्चे 16 समाही य 17 // 2 // अपुव्य णाणगाहणे 18 सुयभत्ती 16 पवयणे पभावणया 20 एएहिं कारणेहिं तित्थयरत्तं लहइ जीओ // 3 // अर्हत्-सिद्ध-प्रवचन-गुरु-स्थविर-बहुश्रुत-तपस्वि-वत्सलता-अभीक्ष्णं ज्ञानोपयोगश्च // 6 // दर्शन विनय आवश्यकानि च शील व्रतं निरतिचारं क्षणलवः तपः त्यागः वैयावृत्त्यं समाधिश्च // 2 // अपूर्वज्ञानग्रहणं श्रुतभक्तिः प्रवचने प्रभावना एतैः कारणैः तीर्थकरत्वं लभते जीवः // 3 // अर्थ-जिन अात्माओं ने कर्म कलंक को दूर कर दिया है और केवल ज्ञान केवल दर्शन से युक्त होकर सत्यमार्ग का प्रचार कर रहे हैं इतना ही नहीं किन्तु प्राणीमात्र की जिन के साथ वात्सल्यता हो रही है पद् काय के जीवों के साथ जिनकी मित्रता है तथा इन्द्रों और चक्रवतियों द्वारा जो पूजे जारहे हैं सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं उन अर्हन् देवों का अन्तःकरण द्वारा गुणकीर्तन करना तथा उन के सद्गुणों में अनुराग करना वा उनके गुणों का अनुकरण करके अपने श्रात्मा को शुणालंकृत करने की चेष्टा करते रहना जिस प्रकार संसार पक्ष में कोई भी व्यक्ति पाठ न करने पर भी अपने नाम को विस्मृत नहीं होने देता ठीक तद्वत् अपने हृदय में श्री अर्हन् प्रभु के नाम का निवास होने देना अर्थात् अपने अन्तःकरण के श्वासोश्वास को अर्हन् शब्दके साथ ही जोड़े रखना यावन्मात्र श्वास आते हों उन में अर्हन् शब्द की ध्वनि निकलती रहे साथ ही उनकीआज्ञा पालन करते रहना जव इस प्रकार अर्हन् प्रभु के नाम से प्रीति लग जाएगी तव वह आत्मा तीर्थकर गोत्र नाम कर्म की उपार्जना करलेता है जिस के माहात्म्य से आप संसार रूपी सागर से पार होता हुआ अनेक भव्य प्राणियों को संसार सागर से पार कर देता है तथा उन के प्रतिपादन किए हुए सत्पथ पर चल कर अनेक भव्य प्राणी संसार सागर से पार होते रहते है। २सिद्ध-आठ कर्मो से रहित अजर अमर पद के धरने वाले-अनंत ज्ञान अनंत दर्शन अनंत सुख क्षायिक सम्यक्त्व अमूर्तिक अगोत्र अनंत शक्ति और निरायु इत्यादि अनेक गुणों के धारक श्री सिद्ध प्रभु जो कि-ज्ञान दर्शन द्वारा
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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