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________________ ( 7 ) मेव भोगने हैं / अतएव उन कर्मों के फलादेश के समय दोनों नयों का अवलम्वन करना चाहिये / जैसे कि-जव अशुभ कर्म उदय में आजाएं तव निश्चय के अवलम्बन से चित्त में शांति उत्पन्न करनी चाहिये / और व्यवहार नय के आश्रित होकर शुभ कर्मों की ओर प्रवृत्ति करनी चाहिए तथा कर्मक्षय करने के लिये चेष्टाएँ करनी चाहिए / सर्वज्ञ आत्मा का ज्ञान सव स्थानों पर व्याप्त हो रहा है अर्थात् वे अपने ज्ञान द्वारा तीनों काल के भावों को यथावत् हस्तामलकवत् देखते है इस बात पर पूर्ण विश्वास रखकर निकृष्ट कर्मो सेवचनाचाहिए। क्योंकि-लोकव्यवहार में देखा जाता है कि-यावन्मात्र अशुभ कर्म है उनको प्रायः लोग गुप्त ही रखने की चेष्टा करते है और अपने अन्तःकरण में यह भाव भी उत्पन्न करते है कि हमारी-अनुचित क्रिया को कोई देख न ले तथा जान न ले यदि अनुचित क्रियाएँ करते समय कोई अन्य व्यक्ति अकस्मात् उस स्थान पर आ भी जावे तव वे अनुचित क्रियाएँ करने वाले व्यक्ति उस स्थान से भाग निकलते हैं अर्थात् वे अनुचित क्रियाएँ गुप्त ही करने की इच्छा रखते है / इसी न्याय से जव अर्हन् प्रभु वा सिद्ध भगवान् अपने ज्ञान द्वारा तीनों काल के भावो को जानते और देखते हैं तो फिर किसी स्थान पर भी अनुचित क्रियाएँ न करनी चाहिए। वास्तव में सर्वज्ञात्मा के मानने का यही मुख्य प्रयोजन है जव उसको मानते हुए भी अनुचित प्रवृत्ति की जा रही है तो फिर इससे सिद्ध हुश्रा कि-नाममात्र से ही उसको सर्वज्ञ और सर्वदर्शी माना गया है परंच अन्तःकरण अनुचित क्रियाओं की ओर ही भुका हुआ है। विचार करने की बात है जव चर्म चक्षुओं का इतना भय माना जाता है तो फिर सर्वज्ञात्मा का अन्तःकरण में भय क्यों नहीं माना जाता / अतएव सिद्ध हुआ कि-अर्हन् वा सिद्ध भगवान् का ज्ञान सर्व स्थानों को यथावत् भाव से देख रहा है इस बात को ठीक मान कर पाप कर्मों से निवृत्ति कर लेनी चाहिए क्योंकि-सूर्यवत् ज्ञान द्वारा प्रकाश करने वाले सर्वज्ञ प्रभु ही है उन्हीं के सत्योपदेश द्वारा भव्यात्मा अपना कल्याण कर सकते है / अतएव उन्हीं के उपदेश द्वारा भव्य प्राणियों को सुमार्ग में स्थापन करना चाहिए जिससे कि-चे मोजसाधन के पात्र वने / इतना ही नहीं किन्तु अनेक आत्माओं को भी सुमार्ग में लाएँ। अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि-किन 2 क्रियाओं द्वारा अर्हन् पद की प्राप्ति हो सकती है / इस के उत्तर में कहा जा सकता है कि-शास्त्रों में उक्त पदकी प्राप्ति के लिये वीस स्थान वर्णन किये गए हैं अर्थात् वीस प्रकार की
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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