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________________ सर्वलोकालोक को हस्तामलकवत् देख रहे हैं जिनको आत्मिक अनंत सुख की प्राप्ति हो रही है इसी कारण से वे आत्मिक सुख मे निमग्न हैं यदि तीनों काल के देवों के सुख के समूह को एकत्र किया जाए तो वह सुख मोक्षात्मा के सुख के सन्मुख अनंतवें भाग मात्र भी नहीं है क्योंकि-सांसारिक सुख पुद्गल-जन्य है; और मोक्ष का सुख आत्मिक सुख है सो जव पौद्गलिक सुख को मोक्ष के सुख के साथ तुलना की जाती है तब वह सुख उस सुख के सामने अनंतवें भाग मात्र भी प्रतीत नहीं होता जैसे-दो बालक अपनी कक्षाओं में परीक्षा देकर चले श्राए और वे दोनों अपनी परीक्षा के फल की प्रतीक्षा किये जा रहे है। एक समय की बात है कि उन दोनों बालकों में से एक बालक अति स्वादिष्ट और मन को प्रसन्न करने वाला सुन्दर भोजन कर रहा है, और दूसरा वालक उसके पास बैठा हुआ है परंच भोजन करने वाला बालक अपने सुन्दर भोजन में आनन्द मानता हुया अपने सहचर का उपहास भी करता जाता है / इस प्रकार की क्रियाएं करते समय दोनों के फलादेश के पत्र उसी समय आगए परन्तु जो वालक भोजन में आनन्द मान रहा था उसके पत्र में यह लिखा हुआ था कि-तुम इस वार्षिक परीक्षा में अव की वार उत्तीर्णता प्राप्त न करसके सो शोक है इत्यादि / किन्तु द्वितीय पत्र में यह लिखा हुआ था कि-हे प्रियवर!आपको कोटिशः धन्यवाद है आपको शुभ समाचार दिया जाता है कि आप अपनी कक्षा में प्रथमांक में उत्तीर्ण होगए हैं इत्यादि।जव पहिले पत्रके लेख को भोजन करने वाले यालक ने पढ़ा वह भोजन के आनन्द को सर्वथा भूल कर शोक दशा को प्राप्त हो गया इतना ही नही किन्तु अपमृत्यु के कारणों को ढूंढने लग गया / जव दूसरे चालक ने अपने पत्र को पढ़ा वह आनन्द की सीमा को भी उल्लंघन करने लगा। अब हम पौगलिक सुख वा ज्ञान के सुख की तुलना करसकते हैं कि-दोनों का परस्पर कितना अन्तर है, सो सिद्धात्मा आत्मिक सुख में निमग्न है सो सिद्ध प्रभुके गुणों में अनुराग करने से तथा गुणोत्कीर्तन करने से जीव तीर्थकर नाम की उपार्जना कर लेता है। 3 प्रवचन-श्रीभगवत् के उपदेशों का जो संग्रह है उसी का नाम प्रवचन है सो उस प्रवचन की भक्ति करना अर्थात् ज्ञान का सत्कार करना जो नास्तिक आत्मा सर्वोक्त उपदेश की आशातनाएं करने वाले हैं उन को हित-शिक्षाओं द्वारा शिक्षित करना जिससे वे आशातना फिर न कर सकें तथा जिनवाणी के सदैव गुणोत्कीर्तन करते रहना, जैसे कि हे आर्यो ! यही परमार्थ है, शेप यावन्मात्र संसारी कार्य हैं वे अनों के ही उत्पादन करने वाले हैं, अतः प्रवचन प्रभावना करने से श्रात्मा उक्त कर्म की उपार्जना कर लेता है। 4 गुरु-सत्योपदेया श्रीभगवत् के प्रतिपादन किये हुए धर्म के अनुकूल
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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