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________________ ( 176 ) वृद्धविवाह वा बालविवाह / इन अनुचित क्रियाओं से जो गृहस्थ वचा हुआ है, वही विशेषधर्म के योग्य समझा जासकता है / जब कुल और शील सम देखे गए हों, तब अपने गोत्र को छोड़ कर अन्य मोत्र के साथ सम्बन्ध करे। उस गोत्र वालों के कुल में रोग न चला पाता हो, वा कन्या तथा कन्याकी माता किसी असाध्य रोगादि से ग्रसित न हो इत्यादि बातों को वुद्धिपूर्वक विचार लेना चाहिए। क्योंकि-विवाह की प्रथा मोहनीय कर्म के उपशम करने के लिये वा व्यभिचार बन्द करने के लिये ग्रहण की गई है। अतएव विवाह से पूर्व ही सब वाताओं का बुद्धिपूर्वक निरीक्षण होजाना उचित है। ___“तथा गोत्रजै वैवाह्ये स्वगोवाचरितज्येष्ठकनिष्ठतान्यवहारविलोप' स्यात् " यदि स्वगोत्र में ही विवाह किया जायगा तब परस्पर ज्येष्ठ कनिष्ठता का जो व्यवहार है, उस का लोप हो जायगा इत्यादि धर्मबिन्दुप्रकरण में स्वगोत्रसम्बन्धी अनेक दोष प्रतिपादन किये गए हैं। यदि ऐसे कहा जाए कि शुद्ध कुल में विवाह करने का प्रत्यक्ष क्या फल उपलब्ध होता है ? तब इस के उत्तर में कहा जाता है कि-शुद्ध और समान शीलादि युक्त कुल में विवाह के निम्न लिखित फल दृष्टिगोचर होते हैं। जैसेकि शुद्धकलत्रलाभफलो विवाहस्तत्फल च सुजातसुतसंतति , अनुपहतचित्तनिवृति , गृहकृत्यसुविहितत्व, आभिजात्याचारविशुद्धत्व, देवातिथिवाधवसत्कारानवद्यत्वं चेति / अर्थ-विवाह का फल शुद्ध कुलीन स्त्री का मिलना है। शुद्ध कुलीन स्त्री के लाभ का फल सुजात पुत्रसंतति की प्राप्ति है / चित्त की अप्रतिहत स्वस्थता, गृह कार्य में दक्षता, श्राचार की शुद्धि, देव अतिथि तथा सम्बन्धियों का सत्कार ये सब सुकार्य कुलीन स्त्रियों द्वारा ही प्राप्त होते हैं / इसी लिए लोग कुलीन स्त्रियों के अभिलाषी रहते हैं। "कुलवधूरक्षणोपायाश्चैते गृहकर्मविनियोगः, परिमितोऽर्थसंयोग, अस्वातंत्र्यम्, सदा च मातृतुल्यस्त्रीलोकविरोधनमिति' भावार्थ-कुलीन स्त्रियों की रक्षा के केवल चार ही उपाय बतलाए गए हैं / जैसेकि-गृहसम्बन्धी सर्व कार्यों में उसे नियुक्त करना चाहिए, क्योंकिगृह-सम्बन्धी कार्य न करने से प्रायः स्त्रियां सदैव काल कलह वा लड़ाई में तत्पर रहती हैं, जिससे घर के सब लोग उस कुलवधू से परम दुःखित होजाते हैं / उस कुलवधू के पास अपरिमित द्रव्य भी नहीं होना चाहिए, क्योंकि-जिन कन्याओं को पूर्णतया संसार का वोध नहीं है तथा गंभीरता चा धैर्य न्यून है, यदि उन के पास अपरिमित द्रव्य होगा तो उनके लिये वह द्रव्य सुखप्रद
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
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Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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