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________________ ( 175 ) तथा समानकुलशीलादिमिरगोत्र वैवाह्यमन्यत्र बहु विरुद्धेभ्य इति // (धर्म० अ० 1 / सू. 12) भावार्थ-जोदेश वाधर्म से विरोध नहीं रखता तथा जिसका परस्पर वैर नहीं है उस व्यक्ति के साथ विवाह श्रादिका सम्बन्ध हो जाय तोवह व्यवहार पक्ष में हानिकारक नहीं माना जाता। परन्तु विवाह-सम्बन्ध करते समय तीन बातों का ध्यान तो अवश्यमेव कर लेना चाहिए,जैसे कि-१ कुल अपने समान हो,२ शीलाचार अपने समान हो और सम्बन्धी अपने से भिन्न गोत्री हो / क्योंकि-अपने समान कुल मे हुआ सम्बन्ध बहुत से अकार्यों से बचाता है, जैसेकि-जव कन्या अपने से बड़े कुल में दीजाती है तव प्राय उस कन्या का महत्व नहीं रहता। जिस प्रकार लोग दास और दासी को देखते हैं, उसी प्रकार प्रायः उस कन्या के साथ श्वसुरगृह वालों का वर्ताव होजाता है। इतना ही नहीं किन्तु बहुत से निर्दयी पति इस धुन में लगे रहते हैं कि कब इस की मृत्यु हो और कव हम नूतन सम्बन्ध जोड़ें। अव विचार किया जासकता है कि-जब पति के इस प्रकार के भाव उत्पन्न हो जाएं, तब उस विचारी अवला की रक्षा किस प्रकार हो सकेगी? यदि कन्या अपनी अपेक्षा विभवादि से न्यून कुल में दीजाती है, तव वह पितगृह के अभिमान वश होकर पतिदेवता की अवज्ञा करने लगजाती है / सदैव काल उसके सम्बन्धियों को धिक्कारती रहती है, इतना ही नहीं किन्तु आप सदैव काल ठी रहती है, जिसके कारण पति परम दुःख में पड़ जाता है तथा श्वसुर सम्बन्धी जन परम दुःखित हो जाते हैं। पति सदैव काल अपने जीवन को निरर्थक समझने लग जाता है / भागने की अथवा अपमृत्यु की इच्छा रखता है इत्यादि अनेक दोष जन्य कार्य होने से शास्त्रकार ने समानकुल का विशेषण दे दिया है। जिस प्रकार कुल समान की व्याख्या की जाती है ठीक उसी प्रकार शील भी सम होना चाहिए / कारण कि-यदि कुल आचरण ठीक नहीं है तव उस मे कन्या भी सुख नहीं पासकती / जैसेकि कुल तो सम ठीक है परन्तु उस कुल में मद्य मांसादि का प्रचार है तथा वर (पति) व्यभिचारी है ऐसी दशा में किसी प्रकार से भी विवाह सुखप्रद नहीं होसकता। क्योंकिव्यभिचारी पुरुष कभी भी पत्नी के लिये सुखप्रद नहीं माना जा सकता। एवं यदि विद्या भी सम नहीं है तव भी प्रायः परस्पर वैमनस्य भाव उत्पन्न होने की संभावना होती है, क्योंकि-विद्या के न होने से या विषम होने से परस्परकिसी वात के विचार में अवश्यमेव विरोध होजाता है। इसी वास्ते सूत्रकर्ता ने आदि शब्द ग्रहण किया है / आयु का भी अवश्य विचार किया जा सकता है, क्योंकि-अनमेल विवाह कभी भी सुखप्रद नहीं माने जासकते / जैसे.
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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