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________________ ( .157 ) नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त स्त्री को स्वातंत्र्य नहीं मिलना चाहिए कारण कि-स्वतंत्रता प्रायः स्वछन्दता की पोषक होजाती है, जिसका पीछे निरोध करना अति कठिन होजाता है / स्वतंत्रता कर लेनी तो सुगम है परन्तु पीछे दूसरे की आज्ञा में वर्त्तना कठिन होजाता है, इस लिये अपरिमित स्वतंत्रता कभी भी सुखप्रद नहीं हो सकती। साथ ही जो स्त्रियां कुल में वृद्ध हों और माता के समान हित शिक्षा देने में दक्ष हो कुलवधू को उनकी आज्ञा में सदैव काल रहना चाहिए। कारण कि-उक्त स्त्रियों के वशवर्ती रहने से योग्यता / तथा सदाचार बढ़ेगा और पातिव्रत्य धर्म दृढ़ता से पालन हो सकेगा / उनकी हितशिक्षा के प्रभाव से वे सदैव काल कदाचार से बचती रहेगी, सो उक्त नियमों की सहायता से कुल वधूओं की रक्षा होसकती है। तथा उपप्लुतस्थानत्याग इति / धर्मविन्दु अ-१ // 16 // भावार्थ-जिस स्थान पर उपद्रव होने की संभावना हो या जहां वार 2 उपद्रव होते हों वहां निवास न करना चाहिए / जिस स्थान पर अपने अथवा पर राजा के कारण उपद्रव उत्पन्न होने की आशंका हो तथा दुर्भिक्ष, मारी ईतियें (अतिवृष्टि, अनावृष्टि, मूपक, टीड पतंगिये स्वचक वा परचक्र ) वा परस्पर जनों के साथ विरोध हो, ऐसे स्थानों में रहने से गृहस्थों के धर्म, अर्थ और काम रूप तीनों धर्मों की भली प्रकार से रक्षा न हो सकेगी, चित्त अशान्त रहेगा / इस लिये ऐसे स्थानों का परित्याग करना ही गृहस्थ के लिये श्रेयस्कर है, ताकि चित्त की समाधि भली प्रकार से बनी रहे / स्वयोग्यस्याश्रयणमिति धर्मअ-१ सू-१७ इस सूत्र का यह आशय है कि-सुयोग्य पुरुप का आश्रय लेना चाहिए / कारण कि-गृहस्थावास में रहते हुए पुरुष को नाना प्रकार के कष्टों का सामना करना पड़ता है, उसमें सुयोग्य व्यक्ति का श्राश्रय होने से वे कष्ट शांति पूर्वक भोगे जासकते हैं / जिस प्रकार महावायु और महामेघ की प्रचंड धारा से सुदृढ़ और सुरक्षित शालाएँ पुरुषों की रक्षक होती हैं, ठीक उसी प्रकार सुयोग्य व्यक्तियां विपत्ति काल मे दुःखी पुरुषों की रक्षा करने में समर्थ होती हैं / अतएव प्रत्येक गृहस्थ को योग्य है कि-महान् सुयोग्य व्यक्ति के आश्रित रहे / इस से एक और भी विशेष लाभ होता है वह यह किं-जव जनता को विदित होजाता है कि-अमुक व्यक्ति अमुक महान् व्यक्ति के आथित है तव आने वाले अनेक विघ्न स्वयमेव उपशम होजाते हैं। कारण कि-सदाचारी पुरुपों का संसर्ग होने से आत्मा विना उपदेश ही सदाचार की
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
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Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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