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________________ क्योंके-धार्मिक गण की उन्नति को देखकर बहुत से भव्य जीव धर्म पथ में श्रारूढ़ होजाते हैं / गणवासी मुनियों की भक्ति और उन पर उनकी श्रद्धा दृढ़ होजाती है। मुनि भी कलह आदि कृत्यों से हट कर धर्म प्रचार में लग जाते हैं। जिस प्रकार लौकिकगण अपनी सर्व प्रकार से उन्नति करता हुआ लौकिकसुख की प्राप्ति कर लेता है उसी प्रकार धार्मिकगण भी धार्मिक उन्नति करता हुआ निर्वाणपद को प्राप्त कर लेता है। सो इसी का नाम गणधर्म है। सारांश इतना ही है कि-गणस्थविरों का कर्तव्य है कि वे जिस प्रकार होसके द्रव्य, क्षेत्र,काल और भाव के अनुसार नव्य नियमों के अनुसार गच्छ को उन्नतिशाली बनाने की चेष्टाएँ करते रहें। जिस प्रकार कालचक्र परिवर्तनशील माना गया है उसी प्रकार गणधर्मादि के नियम भी देशकालानुसार नव्य वनाए जाते हैं। जिसप्रकार कुलकरों की नीति काल के अनुसार परिवर्तित होती रहती है, उसीप्रकार गणस्थविर भी कालानुसार अपने गण की रक्षा के लिये नूतन से नूतन नियम निर्माण करते रहते हैं। स्मृति रहे कि-उस नियमावली में मर्यादित धर्म को नूतन रूप दिया जाता है नकि धर्म का व्यवच्छेद ही किया जाता है जैसेकि-श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने भगवान् अजितनाथ तीर्थकर से लेकर भगवान पार्श्वनाथ पर्यन्त जो चार महावत चले आते थे, उन्हें समय को देखकर पांच महाव्रत का रूप देदिया, नकि सर्वथा उनको व्यवच्छिन्न करदिया / मनुष्यों की बुद्धि प्रादि कालचक्र के अनुसार हुआ करती है, अतः उसी के अनुसार उस समय के स्थविर ठीक व्यवस्था वांध लेते हैं। सो उसी व्यवस्था का नाम गणधर्म है। 7 सङ्घधर्म:-जिस प्रकार कुलों के समूह का नाम गणधर्म होता है उसी प्रकार जो गणों का समूह है, उस को संघ कहते हैं, उस संघ को सुरक्षित रखने वाले संघ स्थविर कहलाते हैं, वे उस प्रकार के नियमों की संयोजना करते रहते हैं, जिससे संघ धर्म भली प्रकार से चलता रहे / कारण कि संघ धर्म के ठीक होजाने से सर्व प्रकार की व्यवस्था ठीक वनी रहती है। जिस प्रकार कुलधर्म का सुधार गण धर्म के आश्रित रहता है, ठीक उसी प्रकार गण धर्म का अभ्युदय संघ धर्म के आश्रित होजाता है / इस कथन से यह भी शिक्षा मिलती है कि जो लोग संगठन करना चाहते हैं, वे जव तक कुलधर्म और गणधर्म की व्यवस्था ठीक न करलें, तव तक उनका राष्ट्रीय संघ दृढ़ता नही पकड़ सकता।अपरंच राष्ट्रीय संघ उसी समय ठीक होसकता है जब कि उसके अवयव रूप कुलधर्म और गणधर्म भली प्रकार संगठित होजाएँ क्योंकि-जैसे पुरुष के सर्व अवयवों में दो आंखें प्रधानता रखती हैं, उसीप्रकार संघधर्म के उक्त दोनों धर्म प्रधान अंग है / क्योंकि शरीर के चाहे कितने
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
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Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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