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________________ ( 165 ) ही अवयव सुरक्षित न रह सकें, परन्तु आंखों के सुरक्षित रहने पर उन अवयवों का भली प्रकार प्रतिकार किया जा सकता है / ठीक इसी प्रकार संघधर्म के स्थविरों के साथ यदि कुलधर्म के स्थविर और गणधर्म के स्थविर भली प्रकार सम्मिलित हो जायं तथा परस्पर तीनों स्थविरों की सम्मति मिल जाय वा परस्पर नियमों में उनका वैमनस्यभाव उत्पन्न न हो या कुल धर्म के स्थविर और गण धर्म के स्थविर भली प्रकार अपना पक्ष त्यागकर संघ धर्म के स्थविरों की आज्ञा पालन करें, तो दिनप्रतिदिन संघधर्म अभ्युदय को प्राप्त हो जाता है। क्योंकि-"संघधर्म" शब्द की वृत्ति करने वाले लिखते हैं “संघधर्मागोष्टीसमाचारा." अर्थात् संघ धर्म उसका नाम है जिस की उन्नति के उपायों का अन्वेषण ग्रामस्थविर, नगरस्थविर, राष्ट्रस्थविर, प्रशास्तस्थविर कुलस्थांवर और गणस्थविर एकत्र होकर करें तथा उक्त धर्मों को सुरक्षित रखने के लिये देशकालानुसार नियमों की संयोजना करें। जिस प्रकार संघधर्म के मुख्य अवयव कुलस्थविर और गणस्थविर पूर्व लिखे जा चुके हैं, ठीक उसी प्रकार संघधर्म के मुख्य अवयवरूप राष्ट्रस्थविर तथा अन्य स्थविर भी है। कारणकि-यावन्मात्र धर्म ऊपर कथन किये जा चुके हैं, और यावन्मात्र उनके स्थविर प्रतिपादन किये गये हैं, उन सबका एक नियत समय पर एकत्र होना फिर परस्पर देशकालानुसार उक्त धर्मों के नियमों पर विचार करना, इतना ही नहीं अपितु सर्वधर्मों की दशाओं का अन्तरंग दृष्टि से अवलोकन करना, उनकी वृद्धि और हानि की ओर ध्यान देना, सब की सम्मति के अनुसार वा वहुसम्मति पूर्वक प्रस्ताव पास करना इत्यादि को भी संघधर्म कहते हैं। जिस प्रकार जैनमत में समयानुसार कुलकर जगत् की वा कर्मभूमियोंकी व्यवस्था ठीक बांधते आए है, उसी प्रकार परमत में स्मृतिकार भी देशकालानुसार नियम बांधते रहे हैं। परन्तु / उन स्मृतिकारों ने विशेष दूरदर्शिता से काम नहीं लिया / क्योंकि-प्रायः उनकी स्मृतियों मे भच्याभक्ष्य पर विशेष विचार नहीं किया गया / कइयों ने तो अतिथिसत्कार में पशुवध भी लिख डाला है, तथा अन्य कई प्रकार से 1 वशिष्टस्मृति के चतुर्थाध्याय में लिखा है कि-पितृदेवतातिथि पूजाया पशुं हिंस्यात् / मधुपर्के च यज्ञे च पितृदेवतकर्मणि / अत्रैव च पशुं हिंस्यानाम्यत्यव्रवीन्मनुः // नाकृत्वा प्राणिना हिंसा मासमुत्पद्यते क्वचित् / न च प्राणिवधः स्वय॑स्तस्माद्यागे वोऽवधः / अथापि ब्राह्मणायचा राजन्याय वा अभ्यागताय वा महोतं वा महाजं वा पचैदेवमस्यातिथ्यं कुर्वतीति // पितर, देवता और अतिथि इनकी पूजा में पशु की हिंसा करे / कारण कि-मनु का यह वचन है कि-मधुपर्क में यज्ञ में पितर और देवताओ के निमित्त जो कर्म हैं, उन में पशु की हिंसा करे, .
SR No.010871
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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