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________________ 102 आधुनिक विज्ञान और अहिसा अगड़ाईयां लेकर उपनिवेशवाद की वेड़ियो से मुक्त हुया चाहते हैं हो रहे है। ऐसी स्थिति में यदि पश्चिमीय सत्ताधीगो की वही पुरानी नीति रही तो निसदेह पारस्परिक मानवीय सम्बन्धो की स्थिति सदिग्ध हो जाएगी। मानव इतिहास से यही शिक्षा ग्रहण करता है कि युद्ध या ऐसे ही घृणित विगत कार्यों से जो स्खलनाएँ हुई है उनकी पुनरुक्ति न हो। चचिल, रूजवेल्ट, स्टालिन, हिटलर, मुसोलिनी, टोजो और उनके अनुयायी महायुद्ध के लिए धर्म, ईश्वर और शांति की दुहाई दे रहे थे। अव अणुअस्त्र के गर्भ मे विश्वशाति के वीज खोजे जा रहे हैं। यह दृष्टिकोण ही गलत है । ध्वस मे निर्माण की कल्पना असभव है। विगत दो महायुद्धो मे संसारने भली-भाँति अनुभव कर लिया है कि महासमरो द्वारा संसार मे सुख और शांति का साम्राज्य स्थापित नहीं किया जा सकता । जो ईया, द्वेष, वैमनस्य व कालुप्य व्यप्टि तक सीमित था वह उन दिनो राष्ट्रव्यापी हो चला था। प्रतिशोध की भावना स्वभावतः विजित जनता में होती है। विश्वशाति का उपाय क्या है और वह कैसे हो, इसकी चिन्ता विशुद्ध भौतिकवादी दृष्टि सम्पन्न राजनीतिज्ञ कहां कर पा रहे है। यह मानना पड़ेगा कि आज समस्त राष्ट्र किसी न किसी सीमा तक अशात है। आणविक शक्ति ने और भी इस अशाति की ज्वाला को भड़काया है। पारस्परिक असहयोग व अविश्वास की भावनाएँ बढ़ती जा रही है । आज का सेनापति अपने कमरे मे बैठकर युद्ध-नीति का संचालन करता है। पुरातन काल मे रामायण, महाभारत के महायुद्ध हुए है। पर इनसे विश्वशान्ति पर कभी सकट के वादल नही मडराये। पर आज स्थिति भिन्न है। यदि अाज कोरिया पर आक्रमण होता है तो विश्वशान्ति खतरे मे पड़ जाती है। काश्मीर, स्वेज या भारत द्वारा चीन पर आक्रमण होता है तो भी विश्वशाति सदेह की कोटि मे आ जाती है । तात्पर्य यह है कि एक राष्ट्र की दूसरे राष्ट्र के प्रति तनिक भी असावधानी हुई कि तत्काल वह विश्वशान्ति का प्रश्न वन जाता है। परिताप की वात तो यह है कि भौतिक शक्ति के उन्माद मे उन्मत्त राष्ट्र अपनी शस्त्र शक्ति द्वारा शान्ति के स्वप्न संजोते है। नाना प्रकार के तर्क-वितर्को द्वारा स्वसिद्धान्त पोषणार्थ प्रयत्नशील है। वे यह सोचते है कि जो अधिक शक्ति सम्पन्न होगा उस पर आक्रमण
SR No.010855
Book TitleAadhunik Vigyan Aur Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni, Kantisagar, Sarvoday Sat Nemichandra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1962
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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