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________________ १४ धर्म के दशलक्षरण मैंने कहा - "भाई ! जरा विचार तो करो । भले ही वे अपनी आयु समाप्ति के कारण मरते हों, पर मरते तो तुम्हारे मुँह में हैं; और वहीं जन्म भी ले लेते हैं। जरा से स्वाद के लिए अनंत जीवों का मुर्दाघर और जच्चाखाना अपने मुंह को, पेट को क्यों बनाते हो ? यदि कोई तुम्हारे घर को जच्चाखाना बनाना चाहे या मुर्दाघर बनाना चाहे, तो क्या सहज स्वीकार कर लोगे ?" "नहीं ।" " "तो फिर मुंह को, पेट को क्यों बनाते हो ?' तब वे कहने लगे - "हम उन्हें मारते तो नहीं, वे स्वयं मर जाते हैं ।" तब प्रेम से समझाते हुए मैंने कहा - "आपके घर में किसी को मारकर नहीं जलावेंगे, उन्हीं को जलावेंगे जो स्वयं की मौत से मरेंगे तथा प्रबंध बच्चों को नहीं, पर वैध बच्चों को पैदा करने वाली जच्चाओं को ही रखेंगे, तब तो आपको कोई ऐतराज न होगा ? यदि होगा तो फिर स्वयंमृत और जन्म लेने वाले जीवों का मरणस्थान और जन्मस्थान अपने मुंह को क्यों बनाना चाहते हो ? भाई ! राग की तीव्रता और अधिकता बिना ऐसे निन्द्य काम सम्भव नहीं हैं । राग की तीव्रता और अधिकता ही महाहिसा है । अतः हिंसामूलक एवं इन्द्रियों की लोलुपतारूप ऐसे असंयम को छोड़ ही देना चाहिए ।" यह बात सुनकर उन भाई ने तो अभक्ष्य भक्षरण छोड़ ही दिया और भी अनेक लोगों ने हिंसामूलक एवं इन्द्रियगृद्धतारूप अभक्ष्य-भक्षण का त्याग किया । यद्यपि सारा जगत इन्द्रियों के भोगों में ही उलझा है तथापि वैराग्य का वातावरण पाकर भोगों को छोड़ देना उतना कठिन नही है - जितना इन्द्रियों के माध्यम से होने वाली ज्ञान की बर्बादी रोकना है । क्योंकि इन्द्रियभोगों को तो सारा जगत बुरा कहता है, पर इन्द्रियज्ञान को उपादेय माने बैठा है । जिसे उपादेय माना हो, उसे छोड़ने का प्रश्न ही कहाँ उठता है ? यहाँ एक प्रश्न सम्भव है कि इन्द्रियों के माध्यम से तो ज्ञान उत्पन्न होता है और प्राप बर्बाद होना कहते हैं ?
SR No.010808
Book TitleDharm ke Dash Lakshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1983
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size13 MB
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