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________________ उत्तमसंघम जाने की तैयारी है । सोचते हैं कि जितने दिन हैं, खा लें; फिर न मालूम मिलेगा या नहीं । जो भी हो, पर ऐसे लोग पेट भरने के नाम पर पंचेन्द्रियों के विषयों को ही भोगने में लगे रहते हैं । मैं पूछता हूँ प्यासे को मात्र पानी की जरूरत है या ठंडे-मीठेरंगीन पानी की । पेट को तो पानी की ही जरूरत है - चाहे वह गर्म हो या ठंडा, पर स्पर्शन इन्द्रिय की माँग है ठंडे पानी की, रसनेन्द्रिय की माँग है मीठे पानी की, घ्रारण कहती है सुगंधित होना चाहिये, फिर आँख की पुकार होती है रंगीन हो तो ठीक रहेगा । एयर कण्डीशन होटल में बैठकर रेडियो का गाना सुनते-सुनते जब हम ठंडा-मीठा सुगंधित - रंगीन पानी पीते हैं तो एक गिलास का एक रुपया चुकाना पड़ता है । यह एक रुपया क्या प्यासे पेट की आवश्यकता थी ? पेट की प्यास तो मुफ्त के एक गिलास पानी से बुझ सकती थी । एक रुपया पेट की प्यास बुझाने में नहीं, इन्द्रियों की प्यास बुझाने में गया है । इन्द्रियों के गुलामों को न दिन का विचार है न रात का, न भक्ष का विचार है न अभक्ष का । उन्हें तो जब जैसा मिल जावे खानेपीने - भोगने को तैयार हैं। बस उनकी तो एक ही माँग है कि इन्द्रियों को अनुकूल लगना चाहिए; चाहे वह पदार्थ हिंसा से उत्पन्न हुआ हो, चाहे मलिन ही क्यों न हो, इसका उन्हें कोई विचार नहीं रहता । - जिनके भक्षण में अनन्त जीवराशि का भी विनाश क्यों न हो - ऐसे पदार्थों के सेवन में भी इन्हें कोई परहेज नहीं होता, बल्कि उनका सेवन नहीं करने वालों की हँसी करने में ही इन्हें रस आता है । वे अपने असंयम की पुष्टि में अनेक प्रकार की कुतकें करते रहते हैं । एक सभा के बीच ऐसे ही एक भाई मुझसे बोले - "हमने सुना है कि बालू आदि जमीकंदों में अनन्त जीव रहते हैं ?" जब मैंने कहा - " रहते तो हैं ।" तब कहने लगे - "उनकी आयु कितनी होती है ?” "एक श्वास के अठारहवें भाग” यह उत्तर पाकर बोले - "जब उनकी आयु ही इतनी कम है तो वे तो अपनी आयु की समाप्ति से ही मरते होंगे, हमारे खाने से तो मरते नहीं । फिर इनके खाने में क्या दोष है ?"
SR No.010808
Book TitleDharm ke Dash Lakshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1983
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size13 MB
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