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________________ उत्तमसंबन 0 २५ हाँ! हम यही कहते हैं और ठीक कहते हैं, क्योंकि ज्ञान की उत्पत्ति तो प्रात्मा में प्रात्मा से ही होती है। इन्द्रियों के माध्यम से तो वह बाह्य पदार्थों में लगता है, पर-पदार्थों में लगता है। इन्द्रियों के माध्यम से पुद्गल का ही ज्ञान होता है क्योंकि वे रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द की ग्राहक हैं। प्रात्मा का हित आत्मा को जानने में है, अतः पर में लगा ज्ञान का क्षयोपशम ज्ञान की बर्बादी ही है, आबादी नहीं। ___ अनादिकाल से आत्मा ने पर को जाना, पर आज तक सुखी नहीं हमा। किन्तु एक बार भी यदि प्रात्मा अपने प्रात्मा को जान लेता तो सुखी हुए बिना नहीं रहता। __ यह तो ठीक, पर इससे संयम का क्या सम्बन्ध ? यही कि संयमन का नाम ही तो संयम है, उपयोग को पर-पदार्थों से समेटकर निज में लीन होना ही संयम है। जैसा कि 'धवल' में कहा है और जिसे प्रारम्भ में ही स्पष्ट किया जा चुका है । यह आत्मा पर की खोज में इतना व्यस्त है और असंयमित हो गया है कि खोजने वाला ही खो गया है। परज्ञेय का लोभी यह आत्मा स्वज्ञेय को भूल ही गया है। बाह्य पदार्थों की जानने की व्यग्रता में अन्तर में झांकने की फुर्सत ही नहीं है इसे ।। यह एक ऐसा सेठ बन गया है जिसकी टेबल पर पाँच-पांच फोन लगे हैं। एक से बात समाप्त नहीं होती कि दूसरे फोन की घंटी टनटना उठती है। उससे भी बात पूरी नहीं हो पाती कि तीसरा फोन बोल उठता है । इसीप्रकार फोनों का सिलसिला चलता रहता है । फोन पांच-पांच हैं और उनकी बात सुनने वाला एक है। इसीप्रकार इन्द्रियाँ पांच हैं और उनके माध्यम से जानने वाला मात्मा एक है। बाहरी तत्त्व पुद्गल की रूप-रस-गंध-स्पर्श-शब्द सम्बन्धी सूचनाएं इन्द्रियों के माध्यम से निरन्तर आती रहती हैं। कानों के माध्यम से सूचना मिलती है कि यह हल्ला-गुल्ला कहाँ हो रहा है? उस पर विचार ही नहीं कर पाता कि नाक कहती है - बदबू आ रही है। उसके बारे में कुछ सोचे कि आँख के माध्यम से कुछ काला-पीला दिखने लगता है। उसका कुछ विचार करे कि ठंडी हवा या गर्म लू का झोंका अपनी सत्ता का ज्ञान कराने लगता है। उससे सावधान भी नहीं हो पाता कि मुंह में रखे पान में यह कड़वापन कहाँ से आ गया- रसना यह सूचना देने लगती है।
SR No.010808
Book TitleDharm ke Dash Lakshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1983
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size13 MB
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