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________________ १२ ० धर्म के बालमण इन्द्रियज्ञान और इन्द्रियसुख हेय हैं और प्रतीन्द्रियज्ञान और प्रतीन्द्रियसुख उपादेय हैं। प्रवचनसार की ही पचपनवीं गाथा की उत्थानिका में प्राचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं : 'अथेन्द्रियसौख्यसाधनीभूतमिन्द्रियज्ञानं हेयं प्रणिन्दति ।' अब, इन्द्रियसुख का साधनभूत इन्द्रियज्ञान हेय है - इसप्रकार उसकी निन्दा करते हैं। इन्द्रियज्ञान से विराम लेने की बात तो बहुत दूर; आज हम इन्द्रियों के विषयों (भोगों) को भी छोड़ने में नहीं, जोड़ने में लग रहे हैं। पेट के नाम पर पेटी भर रहे हैं। हमसे तो वे चौपाये पशु अच्छे जिनकी तष्णा पेट तक ही सीमित है। पेट भर जाने पर वे घंटे-दो घंटे को ही सही, खाने-पीने से विरत हो जाते हैं; पर प्राणीजगत का यह बुद्धिमान दोपाया सभ्यमानव पलभर को भी विराम नहीं लेता। ___ यद्यपि अन्य प्राणियों की तुलना में इसका पेट बहुत छोटा है, पर वह कभी भरता ही नहीं। यदि पेट भर भी जावे तो मन नहीं भरता। कहता है कि पेट के लिए सब कुछ करना पड़ता है। पर यह सब वहाना है। पेट भर जाने पर भी तो इसका मुंह बन्द नहीं होता, चलता ही रहता है। जब तक पेट में समाता है तब तक ऐसा खाना खाता है जो पेट में जावे; पर जब पेट भर जाता है तो पान-सुपारीइलायची आदि ऐसे पदार्थों को खाने लगता है जिनसे रसनेन्द्रिय के विषय को तृप्ति तो हो, पर पेट पर वजन न पड़े। कुछ लोग तो ऐसे मिलेंगे जो चौबीसों घंटे मुंह में कुछ-न-कुछ डाले ही रहेंगे। सोते समय भी डाढ़ के नीचे पान दाबकर सोयेंगे। भरपेट सुस्वाद भोजन कर लेने के बाद भी न मालूम क्यों इन्हें पासपत्ती खाने की इच्छा होती है ? लगता है ऐसे लोग तिर्यञ्च योनि से आये हैं, अतः घास खाने का अभ्यास है जो छूटता नहीं; अथवा तिर्य गति में जाने की तैयारी है, इस कारण अभ्यास छोड़ना नहीं चाहते। क्योंकि घास खाने और वह भी चौबीसों घंटे खाने का अभ्यास यदि छूट गया तो फिर क्या होगा? अथवा ऐसा भी हो सकता है कि नरकगति से पाये हों। वहां सागरों पर्यन्त भोजन नहीं मिला था, अब मिला है तो उस पर टूट पड़े हैं। या फिर नरक
SR No.010808
Book TitleDharm ke Dash Lakshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1983
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size13 MB
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