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________________ तृतीय अंक। उतर पड़ा और मन्दिरमें जाकर "जय ! जय! पुनीहि ! पु. नीहि!" कहता हुआ इस प्रकार स्तुति करने लगा. "हे निरुपम पुण्यस्वरूप! सुमेरु पर्वतकी शिखरके अग्रभागमें सिंहासनपर विराजमान करके जिस समय आपका अभिषेक किया गया था, उस समय आपके चरणोदकसे पृथ्वी प्लावित हो गई थी। आपको नमस्कार है। जिस समय समस्त भूमंडलके लोगोंने आपके चरणोंकी स्तुति की थी, उस समय कोलाहलसे दशों दिशाएं गूंज उठी थीं, और इन्द्रका आसन काँप उठा था।आपको नमस्कार है। आपके गर्भ कल्याणके समय देवोंने इतनी रत्नोंकी वर्षा की थी कि, लोग अपनी दरिद्रताके भारको सदाके लिये दूर करके अतिशय आनन्दित हो गये थे। हे भगवन् ! आपको नमस्कार है । कठिनाईसे भरनेवाले पेटके कारण जो अकार्य होते हैं, और उनसे जो पाप होते हैं, वे ही जिसमें भोर पड़ती हैं, ऐसे संसारके दुःखमय समुद्र में पड़ते हुए जीवोंके लिये आप आलम्बनस्वरूप हैं। आपको नमस्कार है। कमठकी क्रोधरूपी वायुसे ताड़ित हुए घनघोर बादलोकी प्रचंड वर्षासे बड़े २ पर्वत टूटके पड़ते थे, जिससे भाभीत होकर सिंह चीत्कार करते थे, तथा उनकी भीषण गर्जनसे पतन होते हुए नागेन्द्रके भवनसे उसकी कराल फूत्कार निकलती थी और उससे निकलते हुए हालाहल विपसे कमठ दैत्यके मुकुटमें लगे हुए मणिरूपी दीपक उड़कर आपके चरणोंको प्रकाशित करते थे। आ
SR No.010766
Book TitleGyansuryodaya Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages115
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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