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________________ ज्ञानसूर्योदय नाटक । ___ "वह सेना विशाल देहवाले हाथियोंके घंटानादसे और रथोंके चलनेके शब्दसे संसारको अद्वैतमयी करती हुई शीघ्रतासे चलने लगी।" कुछ दिनके पश्चात् दूरसे वाराणसी नगरी दिखाई दी। "उस नगरीमें जो विशाल तथा ऊंचे जिनमन्दिर थे, वे ऐसे जान पड़ते थे, मानो सूर्य चन्द्र तारागणादिर ___ रूप गेंदोंको-जिन्हें कि पृथ्वी अपने उदयाचलरूपी प हले हाथसे फेंकती है, और अस्ताचलरूपी दूसरे हाथसे झेल लेती है,-बीचमें ही पानेके लिये उस नगरीने अपने हाथ ऊपर किये हैं।" वाराणसीकी सीमामें राजाने अपनी सेनाके साथ एक जिनभगवानका प्रासाद देखा, "जिसकी शिखरमें तारागण गुथे हुए जान पड़ते थे और चन्द्रमा प्रत्येक रात्रिको चूड़ामणि सरीखा दिखलाई देता था।" तब वह रथसे १ अद्वैतमयीका भाव यह है कि, पृथ्वीम उस समय सेनाके शब्दोके सिवाय और कुछ भी (द्वैत) नहीं सुनाई पड़ता था । २ गजानां पृथुदेहानां घण्टाभिश्चक्रिणां रवैः। शब्दाद्वैतमयं कुर्वन्प्रतस्थे विश्वमअसा ॥ ३ प्रक्षिप्य पूर्वेण मही महीभृत्करेण यान् स्वीकुरतेऽपरेणार अन्तर्ययाप्तुं ग्रहकन्दुकांस्तान हस्तो जिनागारमिपादुदस्ताः (धर्मशर्मा० सर्ग ४ श्लो० २०) ४ तं जिनागारमद्राक्षीच्छंगप्रोतोडुसञ्चयम्। चूडामणित्वमायाति यत्र चन्द्रः प्रतिक्षपम् ॥
SR No.010766
Book TitleGyansuryodaya Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages115
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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