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________________ ६२ ज्ञानसूर्योदय नाटक । पको नमस्कार है । और हे मोहके उदयको नष्ट करनेवाले जिनेन्द्र! आपको प्रणाम है।" __ स्तुति करनेके पश्चात् राजाने मंदिरसे निकलकर सारथीके साथ गंगानदीका दर्शन किया । वह महानन्दस्वर रूपा गंगानदी-"किनारेके वृक्षोंसे गिरे हुए और पवनके झकोरोंसे इधर उधर बहते हुए फूलोंसे पृथ्वीरूपी कामिनीकी लहराती हुई पंचरंगी साडीके समान शोभित होती थी।" "उसमें क्रीड़ा करती हुई स्त्रियोंके सघन तथा ऊंचे कुचोंसे, पवनप्रेरित तरंगोंके आघातवश जो केशरकी पीली ललाई धुलती थी, वह मदोन्मत्त हाथीके झरते हुए मदके समान जान पड़ती थी(2) "कॅच्छ और बड़े २ मच्छोंकी पूंछोंकी टक्करोंसे सीपोंके संपुट खुलकर कि नारोंपर पड़े हुए थे, जिनमेंसे उज्ज्वल मोती विखर रहे थे। और सांपोंके फण जलके कनूकोंसे शोभायमान होरहेथे" १ इस स्तुतिके सस्कृत गद्यमें बहुत लम्बे २ समास हैं, इसलिये हिन्दीमें उनके प्रत्येक पदका अर्थ लाना अतिशय कठिन है । तो भी हमसे जहातक वना है, प्रयत्न किया है। कई स्थान भ्रमात्मक थे, इसलिये उनका प्रकरणके अनुकूल भाव लिख दिया है। २ तडतरुपयडियकुसुमपुंजज्जलपवनवसा चलंतिया दीसइ पंचयवणं साड़ी महिमहिलऐघलंतिया ॥ ३ जलकीलंतितरणिघणथणजुयवियलियघुसिणपिंजरा । पवनाहयविसालकल्लोलगलत्थियमत्तकुंजरा(?)॥ ४ कच्छवमच्छपुच्छसंघट्टविहट्टियसिप्पिसंपुडा । कूले पडंतमुत्ताहलजललवसित्तफणिफणा ॥
SR No.010766
Book TitleGyansuryodaya Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages115
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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