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________________ प्रायश्चित्त-समुच्चय । सेवना-सचित्त, अचित्त ओर मिश्र द्रव्यके उपभोगका क्रमसे अच्छी तरह विचार कर यथायोग्य प्रायश्चित देना चाहिए। भावार्थ-जिसको प्रायश्चित दिया जाय उसके उत्कृष्ट, मध्यम जघन्य संहननयुक्त शरीरको और मंदज्ञानादिको, मगध, करुजांगल आदि निवास स्थानको. शीतकाल उष्णकाल वर्षाकाल श्रादि कालको, भोर तोत्र मंद आदि भावोंको जानलेना चाहिए और उसकी सचित्त, अचित्त और मिश्र पदार्थकी सेवना पर भी अच्छी तरह विचार करलेना चाहिए वाद यथायोग्य प्रायश्चित्त देना चाहिए अन्यथा लाभके बदले हानि होनेको संभावना है ।। २५॥ नीरसः पुरुमंडश्चाप्याचाम्लं चैकसंस्थितिः। क्षमणं च तपो देयमेकैकं व्यादिमिश्रकं ॥२६॥ अर्थ-निर्विकृति, पुरुमंडल, आचाम्ल, एकसंस्थान ओर उपवास इन पांचोंके प्रत्येक भंग द्विसंयोगो, त्रिसंयोगो, चतुः संयोगी और पंचसंयोगो भंग निकाल कर प्रायश्चित्त देना चाहिए । मंगोंके निकालनेकी विधि इस प्रकार है। निर्विकृति, पुरुमंडल, आचाम्ल, एकस्थान, और उपवास ये पांच प्रत्येक. भंग हैं। द्विसंयोगो भंग बताते हैं-निर्विकृति ओर पुरुमंडल यह प्रथम भग १निर्विकृति और आचाम्ल यह द्वितीय २। निर्विकृति और एकस्थान यह तृतीय भंग ३ । निर्विकृति और क्षमण यह चतुर्थ भंग ४.। पुरुमंडल आचाम्ल. यह पंचम भंगः
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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