SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५ प्रतिसेवाधिकार। ____ अक्षसंक्रम, नष्ट और उद्दिष्ट भी पहलेकी तरह निकाल लेना चाहिए। इस तरह इन आठ भागोंको संख्या, प्रस्तार, अक्षपरि-वर्तन, नष्ट और उद्दिष्ट जानना। पूर्वोक्त निमित्त दोप सोलह और आठ ये अनिपित्त दोष कुल मिलाकर चौवोस दोष होते हैं॥२२॥ अष्टाप्यते न संशुद्धा आधः शुद्धतरस्ततः। अविशुद्धतरास्त्वन्ये भंगाः सप्तापि सर्वदा ॥२३॥ अर्थ-ये ऊपर बताये हुए आठों भंग संशुद्ध नहीं हैं अशुद्ध हैं-बहुत प्रायश्चितके योग्य हैं इनमेंका पहला भंग द्वितीय भंगकी अपेक्षा शुद्ध है-लघु प्रायश्चितके योग्य है । इसके अलावा वाकीके सातों भंग निरंतर अविशुद्धतर हैं-बहुत प्रायश्चितके योग्य है ॥ २३ ॥ प्रतिसेवाविकल्पानां त्रयोविंशतिमामृषन् । गुरुं लाघवमालोच्य च्छेदं दद्याद्यथायथं ॥२४॥ ___ अर्थ-अतिसेवाके कुल विकल्प चौवीस हुए । उनमें से (आगाढकारणकृत सत्कारो, सानुवोची, प्रयत्नप्रतिसेवी) 'पहले विकल्पको छोड़कर अवशिष्ट तेईस विकल्पोंमें छोटे और बडेका विचार कर यथायोग्य प्रायश्चित देना चाहिए ॥ २४ ॥ द्रव्ये क्षेत्रऽथ काले वा भावे विज्ञाय सेवनां। क्रमशः सम्यगालोच्य यथाप्राप्तं प्रयोजयेत्॥२५॥ . अर्थ-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावको जानकर और
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy