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________________ मायश्चित का है। स्त्रीवधसे दूना वालकके वधका है। बालकके वधसे दुना सामान्य मनुष्यके वधका है। एवं उससे दुना पाखंडोके वधका, उससे दूना लौकिक ब्राह्मणके वधका, उससे दूना संयतासंयतके वधका और उससे दूना निर्गन्य साधुके वधका है॥१४३ ॥ कृत्वा पूजां जिनेन्द्राणां स्नपनं तेन च स्वयं । स्नात्वोपध्यंवराद्यं च दानं देयं चतुर्विधं ॥१४४॥ __ अर्थ-उक्त प्रायश्चित्त कर लेने अनन्तर अहंतोंकी पूजा और अभिषेक करे और उस अभिषेक जलसे स्वयं-आप स्नान · करे तथा पुस्तक, कमंडलु, पिच्छी, वस्त्र, पात्र आदिका यथा योग्य दान दे और अभयदान, आहारदान, शास्त्रदान औषध। दान यह चार प्रकारका दान भी दे ।। १४४॥ . . सुवर्णाद्यपि दातव्यं तदिच्छूनां यथोचितं । शिरः क्षोरं च कर्तव्यं लोकचित्तजिघृक्षया॥. ... .. अर्थ-तथा सोना, चांदी, वस्त्र आदि चाहनेवालोंको : यथोचित सोना, चांदी, वस्त्र आदि दे और सम्पूर्ण मनुष्योंका • मन उसकी ओर अनुरक्त हो इस इच्छासे शिरके बाल भी . . मुंडावे। इतना प्रायश्चित्त कर अनन्तर घरमें प्रवेश करे ॥१५॥ क्षुद्रजंतुवधे क्षांतिः षष्ठमन्यव्रतच्युतौ । ..... ..गुणशिक्षाक्षतौ क्षान्तिईग्ज्ञाने जिनपूजनं ॥१४६ . अर्थ-दो इंद्रिय, तेइंद्रिय, और चौइंद्रिय इन क्षुद्र जंतुओं
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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