SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रायश्चित्त' अर्थ-प्रायश्चित्त देनमें कुशल आचार्य, साधुओंको और आर्यिकाओंको जलमें हो कर गमन करनेका जलकेलि महासृणि* नामका प्रायश्चित्त दे॥४२॥ युग्यादिगमने शुद्धिं द्विगुणां पथि शुद्धितः । ज्ञात्वा नृजातं वाचार्यों दद्यात्तदोषघातिनी॥ ___ अर्थ-प्राचार्य डोलो आदिमें बैठकर गमन करने पर मंद, रोगी आदि पुरुषको जानकर उसके दोषका दूर करनेवाली मागशुद्धिसे दूनी शुद्धि दें। भावार्थ-पहले जो मान गमनका प्रायश्चित्त कह पाये हैं उससे दूना प्रायश्चित्त डोली आदिमें बैठकर गमन करनेवाले साधुको देवें ।। ४३ । .. सप्तपादेषु निष्पिछः कायोत्सर्गाद्विशुद्धयति । गव्यूतिगमने शुद्धिमुपवासं समश्नुते ॥४४॥ - अर्थ-कोई साधु विना पिच्छीके सात पंड गमन करे तो बह एक कायोत्सर्गसे शुद्ध होता है। और एक कोश विना पिच्छीके गमन करे तो एक उपवासको प्राप्त होता है। भावार्थपिच्छो हाथमें लिये विना सात गमन करनेका एक कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त है और एक कोश गमन करे तो एक उपवास प्रायश्चित्त है। ऊपरके सूत्रमें द्विगुण पद है उसका अधिकार इस श्लोकमें भी है अतः ऐसा समझना कि कोशसे ऊपर प्रति कोश दुना दूना उपवास प्रायश्चित्त है ॥४४॥ .. महामृणिका अर्थ समझमें नहीं पाया।
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy