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________________ १४२ प्रायश्चित्त-समुच्चय । श्चित्तका आचरण करता है इसलिए उसे पारंचिक कहते हैं। पारंची शब्दकी व्युत्तचि भो ऐसा है कि "धर्मस्य पारं तीरं अंचति गच्छतीति पारंची" अर्थाद जो धर्मको पार-तोरको पहुंच गया है वह पारंची है। अथवा पार अचति परदेशं एति गच्छतीति पारची' अर्थात् जो गुरुद्वारा दिये गये प्रायश्चित्तका आचरण करनेके लिए परदेशको जाता है वह पारंची है ॥२४॥ आसादनं वितन्वानस्तीर्थकृत्प्रभृतेरिह । सेवमानोऽपि दुष्टादीन पारंचिकमुपांचति ॥ __ अर्थ-तोयकर आदिकी प्रासादना करनेवाला तथा राजाके प्रतिकूल दुष्ट पुरुषोंका आश्रय लेनेवाला साधु पारंचिक प्रायः श्चित्तको प्राप्त होता हैं। भावार्थ-जो साधु तार्थङ्करोंकी अवज्ञा करे और राजासे विरुद्ध उसके शघुओंका आश्रय लेकर रहे उसे पार चिक प्रायश्चित्त देना चाहिए ।। २४७॥ आचायश्चि महद्धींश्च तीर्थकृद्गणनायकान् । श्रुतं जैन मतं भूयः पारं व्यासादयन् भवेत् ॥ अथे-प्राचार्य, महद्धिक-प्राचार्य, तीर्थडुर, गणवरदेव जनागम और जन-मत इन सबको अवज्ञा करनेवाला साधु पार। चिक प्रायश्चित्तको प्राप्त होता है ॥ २४८॥ द्वादशेन जघन्येन षण्मास्या च प्रकर्षतः। चरेद् द्वादशवर्षाणि पारंची गणवर्जितः ॥२४॥ अर्थ-वह पार चिक प्रायश्चित्तवाला मुनि संघसे बाहिर
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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