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________________ १४० प्रायश्चित्त-समुच्चय । । गणके आचार्य उसकी आलोचना सुनकर और प्रायश्चित्त न देकर जिस आचार्यने उसे अपने पास भेजा है उन्हींके पास उसे वापिस भेज देते हैं। वे अपने पास भेजनेवालेके पास भेज देते हैं एवं जिस क्रपसे जाता है उसी क्रमसे लौटकर अपने संघके प्राचार्य के सपोप आता है। वहां आकर वह गुरु द्वारा दिये गये प्रायश्चित्रको पालता है ॥२४॥ अन्यतीर्थ्यं गृहस्थं स्त्री सचितं वा सकर्मणः। चोरयन बालकं भिक्षु ताडयन्ननुपस्थितिः॥ __ अर्थ-अन्य लिंगीको, गृहस्थीको, स्त्रीको और चालकको चुरानेवाला तथा अपने साधर्मो ऋषिके छात्रोंको भी चुराने वाला और साधुको दंड आदिसे मारनेवाला अनुपस्थान मायश्चित्तका भागी होता है। भावार्थ-इस तरहके कर्तव्य करने वालेको अनुपस्थान प्रायश्चित्त देना चाहिए ।। २४३ ॥ द्वादशेन जघन्येन षण्मास्या व प्रकर्षतः। चरेद् द्वादश वर्षाणि गण एवानुपस्थितिः॥ अर्थ-वह अनुपस्थान प्रायश्चित्तवाला मुनि अपने संघमें ही जघन्यसे पांच पांच उपवास और उत्कृष्टपनेसे छह छह महीने के उपवास बारह वर्षपर्यंत करे। भावार्थ-कमसे कम निरंतर पांच उपवास करके पारणा करे फिर पांच उपवास करके फिर पारणा करे एवं बारह वर्ष तक करे तथा अधिकसे अधिक छह. महीनेके उपवास करके.पारणा करे फिर छह महीनेके उपवास
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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