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________________ १३९ छेदाधिकार। सन्मुख जाता है परन्तु वे पश्चात दीक्षित साधु उसकी सेवा सुश्रूषा नहीं करते, उसे नमस्कार नहीं करते और न उसे आते देखकर विनयके निमित्त सन्मुख ही जाते हैं। भावार्थ-जिस साधुको अनुपस्थान-प्रायश्चित्त दिया जाता है वह मुनि-परिषदसे बत्तीस धनुष-प्रमाण दूर बैठकर गुरुद्वारा दिये हुए प्रायश्चित्तका अनुष्ठान करता है। पश्चात दीक्षित साधुओंको भी स्वयं वन्दना आदि करता है पर वे पश्चात दीक्षित साधु उसे वंदना आदि नहीं करते। इस अनुपस्थान-प्रायश्चित्तके दो भेद हैं। एक खगण-अनुपस्थान दूसरा परगण-अनुपस्थान। खगणानुपस्थान प्रायश्चित्तमे वह सापराध साधू अपने दोषोंकी आलो. चना अपने संघके आचार्यके समीप ही करता है। और परगणानुपस्थान-पायश्चित्तमें परसंघके आचार्योंके समीप जा जा कर करता है। वह इस तरह कि-जिस गणमें जिस साधुको दर्प आदि हेतुओंसे दोष लगते हैं उस गणके आचार्य उस सापराध साधको किसी दूसरे संघके आचार्यके समीप भेजते हैं। वहां जाकर वह उस संघके प्राचार्य के समक्ष अपने दोषोंकी आलोचना करता है। वे आचार्य भी उसके दोष सुनकर और पायश्चित्त न देकर किसी अन्य संघके आचार्यके समीपभेज देते हैं। वहां भी वह अपने दोषोंको आलोचना करता है। पश्चाव वहांसे भी वह उसी तरह और और प्राचार्योंके पास भेज दिया जाता है। इस तरह तीन, चार, पांच, छह, सात संघके आचार्योंके. पास तक अपराधके अनुसार भेजा जाता है। आखिर, अंतिम
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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