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________________ प्रायश्चित्त-समुच्चय। लेकर जितना समय दीक्षाका हो चुकता है उसमेंसे कालके विभागसे जितनी दीक्षा छेद दी जाती है उतनी कम हो जाती है अतः उस छेदसे उसका उतना दोक्षाभियान नष्ट हो जाना है। वह छेद एक दिन दो दिन, तीन दिन, पत, मास आदिको अवधि पर्यंत होता है ।। २२४ ॥ साधुसंघ समुत्सृज्य यो भ्रमत्येक एव हि।' तावत्कालोऽस्य पयोयश्च्छिद्यते समुपेयुषः॥ अर्थ-जा काई साधु मुनिसंघको छोड़कर अकेला परिभ्रमण करता रहे तो लौटकर वापिस आने पर उसकी उतनी दीक्षा-जितने काल तक कि वह अकेला घूमता रहा है छेद देना चाहिए ।। २२५ ॥ सन् यथोक्तविधिः पूर्वमवसन्नः कुशीलवान्।' पार्श्वस्थो वाथ संसक्तो भूत्वा यो विरहत्यभीः॥ यावत्कालं भ्रमत्येष मुक्तमार्गों निरुत्सुकः । तावत्कालोऽस्य पर्यायच्छिद्यते समुपेयुषः॥. __ अर्थ-जो पहले शास्त्रोक्त आचरणको पालता हुआ बाद अवसन्न, कुशील, पार्श्वस्थ और संसक्त होकर यथेष्ट निर्भीकतासे पर्यटन करता रहे। पर्यटन करते करते जब वह लौटकर वापिस आवे. तव जितने काल तक वह रत्नत्रयसे रहित और धर्ममें निरुत्सुक होता हुआ भ्रमण करता रहा है उतने कालतक : की उसकी दीक्षा छेद दी जाती है ॥२२६-२२७॥ . . .
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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