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________________ दाधिकार। - - - - - पावस्थै विहरन् साधु सकृदोषनिषेवकः। आषण्मासं तपस्तस्य भवेच्छेदस्ततः परं॥ ___ अर्थ-एक वार दोप सेवन करनेवाला जो कोई साधु छह महीने तक पार्श्वस्थ साधुओंके साथ पर्यटन करता हुआ जब लौट कर संघमें वापिस आये तब उसे तप प्रायश्चित्त और छह महीने बाद आनेसे छेद प्रायश्चित्त देना चाहिए ।। २२८॥ कृताधिकरणो गच्छऽ नुपशान्तः प्रयाति यः। तस्य च्छेदो भवेदेष खगणेऽन्यगणेऽपि च ॥ __अर्थ-जो कोई मुनि संघमें कलह करके क्षमा मांगे विना चला जाय यासंघहीमें निवास करता रहे तो उसके लिए वसंघमें और परसंघमें नीचे लिखा छेद प्रायश्चित्त है ॥२६॥ प्रत्यहं छेदनं भिक्षोः पंचहानि खके गणे। वृषभस्य दशोक्तानि गणिनो दशपंच च ॥२३०॥ __अर्थ-सामान्य साधुके लिए स्व.गणमें प्रतिदिन पांचदिनका, प्रधानमुनिके लिए प्रतिदिन दश दिनका और आचार्यके लिए प्रतिदिन पंद्रह दिनका दोताच्छेद है। भावार्थ-सामान्य मुनि या प्रधान मुनि या प्राचार्य कलह करके संवमें बने रहें और एक दिन क्षमा न मांगे तो सामान्य मुनिको पांचदिनकी, प्रधानमुनिको दश दिनकी और आचार्यको पंद्रह दिनकी दीक्षा छद देनी चाहिए। इस हिसावसे. जितने दिनों तक वे क्षमा न
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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