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________________ छेदाधिकार। से तो बाहर निकल गया हो और मूलपायश्चित्तके योग्य न हो तो उसे दे प्रायश्चित्त देना चाहिए। तदक्ततेवभूमिमादिकंतो मूलढाणं जो न संपत्तो । से परियायच्छेदो पायच्छित्तं समुद्दिढ ॥ १ ॥ योऽतिचारो न शोध्येत तपसा भूरिणापि च । पर्यायश्च्छिद्यते तेन क्लिन्नतांबूलपत्रवत् ॥२२३॥ __ अर्थ-जो कोई मुनि प्रचुर उपवास आदिके द्वारा भी अपने दोपोंको दूर न कर सकता हो तो सड़े हुए ताम्बूलपत्रके अंशच्छेदको तरह उसको दीक्षाका अंश छेद देना चाहिए। भावार्थ-जैसे तावूलपत्रका जितना भाग पानीसे सड़ गल जाता है उतना कैची वगैरहसे कतर कर फंक दिया जाता है और शेष भाग रख लिया जाता है उसी तरह बहुतसे उपवास आदि करने पर भी जिसके अपराधोंकी शुद्धि न हो सकती हो उसकी दोनामेसे दिवस, पत, मास आदिको अवधि तकको दीक्षा छेद देना चाहिए ।। २२३ ॥ प्रव्रज्याकालतः कालच्छेदेन न्यूनतावहः। मानापहारकश्छदे एकरात्रादिकः स तु ॥२२४॥ अर्थ-जिस समयसे वह साधु दीक्षा लेता है उस समयसे १ तपोभूमिमतिकान्तो मूलस्थान चयन संप्राप्तः। तस्य पर्यायच्छेदः प्रायश्चित्त समुद्दिष्ट। -
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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